मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

थोडा और जी पाऊँ मैं ......


एक रास्ता है जिस पर चल रहे है हम दोनों,
मैं और मेरे साथ है मेरी तन्हाई।
अनजाने से बन चलते जा रहे है हम दोनों,
फिर भी साथ है सदियों से हम दोनों।
चुप-चाप चलते-चलते ना जाने कितने 
जन्म बीत गए,
फिर भी एक दुसरे से ऊबे ना कभी हम।

कई बार यूँ भी हुआ की कोई तीसरा भी आया हमारे बीच,
पर ना कर पाया हमको कोई भी जुदा ।


पर अब ना जाने क्यूँ डर सा है लगने लगा मुझको,
अपनी ही तन्हाई भी बेगानी सी लगने लग गयी है,
ना जाने क्यूँ अब ये भी अनजानी सी लगने लग गयी है,
वीरान से शहर में घुमती जिंदा लाश सी लगने लग गयी है अब यह मुझको।

सोचती हूँ दूर किसी अनजाने और घने से जंगल में छोड़ आऊं इसको,
पुराने और सूखे से किसी पेड़ से बाँध आऊं इसको,
और जिंदा लाशों के इस भवर से शहर में डूब जाऊं मै भी,
चाह और आस के साये से आज़ाद हो जाऊं मै भी,
और दिल से, इस उम्मीद के पंछी को भी आज़ाद कर दू मै,
ताकि थोडा और, बस यूँ ही कुछ और, बस यूँ जी पाऊँ मै भी।

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