मंगलवार, 28 अगस्त 2012

दर्द भी ज़िन्दगी का हिस्सा है.......






 "अब लिखोगी भी या हमारा तमाशा बना कर ही छोड़ोगी"

अबोली ने आखिर कर लिख ही डाला ख़त, और दे दिया उस छोटे लड़के को जिसे माँ लेकर आयी थी. ना चाहते हुए भी कितने काम ऐसे करने पड़ते है जैसे की शायद सामने वाले का किसी जन्म का क़र्ज़ उतरना हो, मगर अबोली ने तो आज तक सभी काम वही किये जो उस से कहा गया करने को. पिता ने सातवी कक्षा पास होने पर कहा घर बैठ कर पढ़ाई करनी सो ऐसा ही सही, पिता ने कहा गृह विज्ञान की पढ़ाई करनी है सो ऐसा ही सही, पिता ने कहा साजो सिंगार का सामान मेरे घर में लड़कियों के लिए नहीं है बिया के अपने घर जाओगी तो जो मन में आये वाही करना सो ऐसा ही सही, पिता ने कहा घर से बाहर मेरे सिवा किसी के साथ नहीं जाना सो ऐसा ही सही.

पिता ने सब बातों पर पाबन्दी तो लगा दी थी पर सपने देखने पर पाबन्धी ना लगा पाए, या यूँ कहें अबोली के सपनों के शहर पर पिताजी का नियंत्रण ना था. सोते या जागते, खुली या बंध आँखों से सपने देखने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता क्यूंकि कोई जान ही नहीं पाता की सामने वाला कब सपने देख रहा है. अबोली ने सपनों की अपनी  एक छोटी सी दुनिया बनाई हुई थी. जिसमें अबोली की अपनी जिंदगी अपनी थी उस पर किसी और का राज़ चल ही ना सकता था, उसके सपनों की हर दिवार प्यार से बनी थी, और प्यार क्यूंकि ना तो दिखाई देता है और ना ही बताया जा सकता है प्यार तो बस महसूस ही किया जा सकता है इसलिए अबोली का सपनों की दुनिया में हर वक़त-बेवक्त खोये रहना किसी को ना दिखाई पड़ता था. अबोली अपने सपनों की दुनिया में वो सब करती जो वो हकीक़त में वो नहीं कर सकती थी, सपनों की दुनिया सही मानो में उसके जीने का एक मात्र कारण था.

बचपन में अबोली अपनी माँ को तिल-तिल करते हुए मरते देखती थी, विरोध करने पर मार खाना और फिर हर बात पर सहमती दिखाना माँ ने तो सीख लिया था पर अबोली को ये सब मंजूर नहीं था. विरोद करने पर मार से बचने के डर से ही शायद उसने बचपन में ही अपनी एक सपनों की दुनिया बना ली थी, और इसी सपनों की दुनिया में वो सब कुछ करती थी जो वो हकीक़त में करने का सोच नहीं सकती थी.

सपनों की दुनिया में जीते-जीते बचपन तो बीत गया पर अब क्या, शायद अबोली को सचाई का आभास अभी भी न हुआ था. हकीक़त की ज़िन्दगी सपनों की ज़िन्दगी से बिकुल उल्ट होती है, पर वो तो अभी भी सपनों में जी रही थी. अब तक की ज़िन्दगी तो सपनों के सहारे कट गई थी पर अब क्या अब तो उसका बिया होने वाला था. आज वह दिन था जब वो बिया के अपने घर जाने वाली थी.

ना जाने किस बात पर लड़के वालों और लड़की वालों के बीच मन-मुटाव हो गया था. लड़के वाले बिना डोली लिए वापस लौट जाने की धमकी दे रहे थे. किसी भी तरहां ना मानाने पर अबोली के पिता ने उसकी माँ को ये तरकीब बताई थी. सो माँ कागज़ और कलम ले कर अबोली के पास चली आई और बोली," ये ले करमजली कागज़ और लिख चिठ्ठी अपने होने वाले पति के नाम, बस इतना ही लिखना की 'मुझको यहाँ से ले जाओ नहीं तो ये लोग मुझे मार डालेगें, मैं मरना नहीं चाहती,  मैं आपके साथ जीना चाहती हूँ, मैं आपके साथ किसी भी हाल में रह लुंगी बस मुझे यहाँ से ले जाओ' जल्दी लिख डाल".

अबोली माँ की बात सुन हक्की-बक्की रह गयी. वह अपने को पहली बार ज़िन्दगी में इतना बेबस महसूस कर रही थी, किसी तरहां हिम्मत जुटा कर माँ से बोली," माँ मुझे कहीं से ज़हर ला दो पर मुझे डोली में बैठ कर ना जाने दो, मैं तुम्हारी बिटिया हूँ, तुम कैसे मुझे इन लोगों के साथ जाने दोगी जो अभी मुझे छोड़ देना चाहते है, वह बाद में क्या-क्या न करेंगें इससे तो अच्छा होगा तुम मेरा अपने हाथों से अभी यहीं गला दबा दो". पर शायद माँ भी बिरादरी के हाथों मजबूर थी, उसे अपनी दो और बेटियों को अभी बिहयाना था सो माँ भी अपनी आँखों के मोटे-मोटे आंसू छुपाती हुई बोली,"अब लिखोगी भी या हमारा तमाशा बना कर ही छोड़ोगी, ना जाने कौन से फूटे करम ले कर पैदा हुई थी की ये दिन दिखा रही हो हमको".

"लेकिन माँ इसमें मेरा क्या कसूर है, मुझे तो पता भी नहीं के बाहर क्या हुआ है, किस बात पर अचानक तुम भी मुझ से नाराज़ हो गयी हो, मैं तो बस तुम्हें सच बता रही हूँ, जो आज मुझे किसी की बात पर छोड़ने के लिए तयार है वो कल ना जाने किस की बात पर मुझे घर से बाहर निकाल दें या मार ही डालें, सो बेहतर होगा तुम मेरा अभी इसी समय अपने हाथों से गला दबा दो".

माँ दोनों छोटी बहनों को ले आई और बोली,"ये अगर ना होती तो मैं ही तेरा गला दबा देती"

माँ का इतना कहना था की अबोली ने झट से भीगी पलकों से ही ख़त लिख डाला वैसे ही जैसे माँ ने कहा था. और अबोली उस दिन तो जिंदा 'शायद अपने घर' चली गयी, और माँ- पिताजी का क़र्ज़ भी उतार पिताजी के घर से अपने सपनों की दुनिया और अपना कफन ओढ़े चली गयी, मन में बस एक अरमान बाकी रह गया की शायद वो भी विदा हो कर पिताजी के घर से जा सकती फूलों से भरी डोली में बैठ कर.

मजबूरी भी अजीब सी कुछ है,
ना तुम को प्यार दिखाने का मौका देती है,
ना हमको आंसूं बहाने का मोका देती है,
ना होती ये मजबूरी तो,
तुम भी हंस कर विदा कर देती एक बार,
और हम भी आँखों में ख़ुशी के आंसू ही लिए ,
तेरे ख्यालों में अपना हंसी चेहरा छोड़ जाते.

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