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रविवार, 8 मई 2022

आदमी की व्यथा - Man's agony

 

देवेन ने बस एक बार मुड़ कर देखा, उस घर की तरफ जिसे पाने के लिए उसे धूप, बारिश, गर्मी, सर्दी सब सही, आज उसे बेच कर वो चल दिया। सबसे छुपा कर बेच दिया. देवेन अब बस दुनिया में खो जाना चाहता था.

देवेन उस घर को बेच चला था जो कभी बसा ही नहीं, तक़दीर के हाथों का खिलौना बन कर रह गया था. आज़ाद पंछी सा था वो, पर कभी ऐसा हुआ ही नहीं के वो आज़ाद रह पाता. 

इतना न मुझसे न प्यार बढ़ा
की मैं एक बदल आवारा 


बड़े भाई - बहनों के साये में पला था, थोड़ा सा लाडला भी था, तुतलाते बच्चे बहुत जल्दी सबका मन जीत लेते हैं, बस देवेन का बचपन भी कुछ ऐसा ही हो गया था. पर जब भाई - बहनों के अपने बच्चे हो गए और देवेन भी बड़ा हो गया तो अपने को कुछ अकेला सा महसूस करने लगा. पर देवेन अभी भी भाई-भाभी के कहे बगैर कुछ न करता.

शादी होने के बाद देवेन पत्नी को बहुत ज़्यदा तवज्जो न दे पाया, उसे समझ नहीं आ रहा था की कैसे balance रखे रिश्तो के बीच. सो कोई भी रिश्ता उसे बाँध कर न रख पाया.

काम के सिल-सिले में देवेन जाएदा तर घर से बहार ही रहता, और घर रहना उसे भाता भी नहीं था. Joint Family में रहना देवेन को बहुत भा रहा था। न ज़िम्मेदारी दिखेगी न निभानी होगी।  देवेन जब भी घर जाता बीवी का रोना बच्चों के लिए, भाई-भाभी का रोना पैसे के लिए ये सब उसे उदास और irritate ही करता। कई बार उसने पत्नी को समझाना की कोशिश की ज़िन्दगी घर-गहरस्ती और बच्चों के परे भी है, और वो हसीं है।  

देवेन चाहता था की उसकी पत्नी इन् सब बातों से ऊपर उठ कर प्रेम और प्रीत की दुनिया को देखे। दुनिया-दारी में जितना उलझो ये और उलझाती जाती है, और जान-बुझ कर दल-दल में क्यों फसना, देवेन ज़िन्दगी को सरल और simple रखना चाहता था। 


झील-मिल सितारों का आँगन होगा 
रिम-झिम बरसता सावन होगा 


पर कौन समझता है यहाँ किसीको। हर कोई समझता है जैसे मेरा मन चाहे बस वही ज़िन्दगी को जीने का तरीका है। 

एक रोज़ दिवाली पर देवेन घर आया, बहुत से gifts, सबके लिए ले कर आया। खुशियों की कीमत कहाँ होती है, खुशियां ज़र्रे-ज़र्रे में बसी हैं, पर उनकी कीमत किसीको कहाँ पता होती हैं, और खुशियां न बिक सकती है और न खरीदी जा सकती हैं.

घर पहुंचते ही पत्नी को रूठा हुआ पाया . पूछने पर पता लगा की वो बहुत तंग आ गयी गयी है, उसकी शिकायत थी की उसकी बच्चे की चाहत को देवेन ignore कर रहा था। देवेन ने उसे समझाने की कोशिश की, की बच्चा बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होता है, और अभी वो इस ज़िम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं है। पर वो ज़िद्द पर अड़ी थी और देवेन की कोई बात मानने को तैयार नहीं थी। देवेन घर से उठ कर चला गया और फिर देर रात ही वापस आया। 

घर आ कर देवेन कपडे बदल सीधा सोने चला गया।  कुछ ही देर में रिद्धि गुस्से में पैर पटकते वहां आ पहुंची, "कहाँ गए थे, कल दिवाली है, मुझे बाज़ार ही ले जाते" 

"बस यु ही ज़रा दोस्तों से मिलने चला गया था, अभी नींद आ रही है, सुबह बात करें" देवेन बात को यही ख़तम कर देना चाहता था। 

पर रिद्धि आज कुछ दुसरे ही mood में थी,"नहीं, सुबह नहीं, अभी बात करनी है, कब तक तुम सब बातों से भागते रहोगे, मैं यहाँ तुम वहां, और बच्चे के नाम पर भी कुछ नहीं सुनना चाहते, ऐसा कब तक चलेगा, मैं यहाँ अकेले कैसे दिन बिताती हूँ, मुझे बच्चा चाहिए बस"। 

"अच्छा, अभी बात करते हैं, मैने, तुम्हें पहले भी कहा हैं मेरे साथ चलो, तुम और मैं और हसीं ज़िन्दगी, छोड़ो सब बातों को, क्यों ज़िन्दगी को उलझाना चाहती हो, चलो तो सही, बच्चे के बार में भी discuss कर लेंगें, बोलो कब चलना हैं" ? देवेन ने रिद्धि को प्यार से अपने पास बिठाते कहा। 

"ओह ! तुम्हारे साथ चलूँ, और मैं भी तुम्हारी तरहं खानाबदोश बन जाऊ, और ये घर भईया-भाभी खा जाएँ, और मेरे भाई-बहन सबको छोड़ दूँ, तुम्हारा तो कुछ ठिकाना हैं नहीं और मुझे भी अपनी तरहं बेघर बनाना चाहते हो" रिद्धि ने एक सांस में बहुत कुछ बोल दिया। 

"रिद्धि, घर का क्या हैं, आज हैं कल नहीं होगा, और क्या पता कल इससे भी बड़ा हो जाये, यहाँ बस एक बात matter करती हैं और वो हम-तुम है और हमारी ज़िन्दगी हैं" देवेन ने प्यार से बात समझानी चाही। 

"ठीक हैं इस घर में अपना हिस्सा लेलो और चलते है बस" रिद्धि ने अपनी बात बता दी। 

"नहीं रिद्धि, भइया जैसा करेंगें, और कहेंगें वही मान लेंगें, ज़िद्द छोड़ो और मेरे साथ चल दो" देवेन वापस सोने चला गया। 

सुबह शोर ने देवेन की नींद खोल दी, रिद्धि की ज़ोर-ज़ोर से बार करने की आवाज़ आ रही थी। 

रिद्धि ज़ोर-ज़ोर से पैर पटकते हुए कमरे में दाखिल हुई, " बोल दिया मैंने भइया-भाभी से, के हमें हमारा हिस्सा देदें और हम यहाँ से चले जायेंगें"। 

"रिद्धि, ये क्या किया तुमने, एक बार मुझसे पूछ तो लेती" देवेन बहुत ख़ीज गया था। 

देवेन ने अपना सामान बाँधा और कपडे बदल कर जाने लगा। 

"कहाँ जा रहे हो, जो कुछ मैंने किया वो हमारे लिए ही किया" रिद्धि देवेन के सामने, उसका रास्ता रोक खड़ी हो गयी, "तुम बोल नहीं पाते सो मैंने तुम्हारा काम आसान कर दिया, अब चलो छोड़ो, चलो दिवाली मनाते है और जल्द ही अपना हिस्सा ले कर निकल जाते हैं, you can thank me later" रिद्धि ने सब एक सांस में बिल दिया।  

देवेन को बहुत गुस्सा आ रहा था, पर भाई की आवाज़ कानो में पड़ते ही देवेन गुस्से को पी गया.

"देवेन, हम लोग बहार नाश्ता करने जा रहे है, तुम दोनों भी तैयार हो जओ" भइया ने धीमी आवाज़ में कहा। 

इससे पहले की देवेन कुछ कहता, रिद्धि बोल पड़ी, "अब हम कहीं नहीं जायेगें, अब हम बस हिस्सा लेगें और यहाँ से चले जायेंगें" 

"रिद्धि ! चुप हो जाओ और जाओ यहाँ से" देवेन ने ज़ोर से गुस्से में कहा.

"नहीं देवेन मैं कहीं नहीं जाउगीं अब, आज ही फैसला हो जाये बस" रिद्धि देवेन के सामने जा खड़ी हुई। 

देवेन गुस्से में आग बबूला हो रहा था, रिद्धि उसके सामने खड़ी थी और धीमी आवाज़ में बोली  "तुम बोलते नहीं और मुझे बोलने नहीं देते, हम अपना हिस्सा लेगें और चले जायेंगें, आज बस तुम मेरा साथ देदो और बस देखो फिर, और तुम्हारा कहना भी मान लुंगी, यहाँ से जाने का" 

देवेन अपने गुस्से पर काबू न रख पाया और रिद्धि को थपड मार दिया। रिद्धि पलंग पर बैठ कर अपना मुँह छुपा रोने लगी.

देवेन अपना सामान उठा वहां से चल गया। 'भाग जाना किसी बात का हल नहीं होता, पर शायद यहाँ से जाने पर इस बात को यहाँ विराम मिल जाये' देवेन बात को ख़तम करने के लिए वहां से चला गया। पर शाम को घर वापस आ गया, दिवाली वाले दिन वो तमाशा नहीं बनाना चाहता था।  

रिद्धि घर में कहीं नज़र नहीं आ रही थी। देवेन को थोड़ी राहत सी हुई, शायद ज़िन्दगी एक और मौका दे रही थी। चारो ओर दीयों की रौशनी से देवेन को बहुत ही अच्छा लग रहा था.

'न ज़िम्मेदारिया और न ज़िम्मेदारियों का बोझ, कब तक दूसरों की ज़िन्दगी जीनी, अब बस अपनी ज़िन्दगी, अपनी मर्ज़ी से ही जीनी हैं बस' देवेन चारों ओर रौशनी देख मन ही मन प्रण ले रहा था।  



ए मेरे दिल कहीं और चल 
गम की दुनिया से दिल भर गया 


                                                                             to be continued ..........

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रविवार, 7 नवंबर 2021

सुधा - एक कहानी


 "सुधा ये क्या किया तुमने"

"पापा, मैं बच्ची नहीं हूँ, मैं जानती हूँ मैं क्या कर रही हूँ "

सुधा ने बहुत सोचा, की जो वो करने जा रही है उस से रोहित, उसकी और उनके बच्चों की ज़िन्दगियों में क्या परिवर्तन आएगा। पर सबके बारे में सोचना सिर्फ उसका ही काम है क्या ? बच्चे बड़े हो गए, अपनी ज़िन्दगी में सब व्यस्त हो गए, सुधा ने ये सब ज़िम्मेदारी पूरे मन से निभाई थी। 

रोहित की क्या ज़िम्मेदारी रही है, मकान को घर बनाने में रोहित का क्या योगदान रहा, बस खर्चा देना, खर्चा तो सुधा भी चला लेती, उसके लिए रोहित की क्या ज़रुरत थी। 

शादी का मतलब बस बच्चे पैदा करना और खानदान को आगे बढ़ाना ही है क्या ? सुधा, रोहित की ज़िन्दगी जी कर अब थक  चुकी थी, अब वो अपनी ज़िन्दगी जीना चाहती है। 

"सुधा, मेरी बात सुनो, रोहित को माफ़ कर दो, ये सब मत करो, इस सब से तुम्हारा घर टूट जायेगा, और रोहित की ज़िन्दगी ख़राब हो जाएगी, ये सब करके तुम कहाँ जाओगी, सुखी रह पाओगी क्या अकेली ?"

"माँ, मेरे सुख का क्या, इतने सालों से मैंने कुछ नहीं कहा, कह दो की तुम नहीं जानती रोहित मेरे साथ क्या कर रहा था ?"

"औरत का दूसरा नाम ही सहन-शीलता है"

"नहीं माँ, मैं भगवान नहीं हूँ की माफ़ कर दूँ, मेरे सब्र के सब बांध टूट गए है अब  ?"

सुबह रोहित का फ़ोन आया तो सुधा चाय की चुस्कियां ले रही थी, रोहित उसे आज का प्लान बता रहा था। शाम को पार्टी है, कहाँ और कब आने को कह कर बस फ़ोन बंद कर दिया।  

'बस इतनी ही बात थी तो मैसेज कर देता, इसके लिए कॉल करने की क्या ज़रुरत थी' सुधा चाय की चुस्की लेते सोच रही थी। 

बीस साल हुए सुधा और रोहित की शादी को। इतने सालों में अभी भी उसे ऐसा लगता था की वो रोहित को नहीं जानती, जानना तो दूर उसे रोहित को पास से देखे न जाने कितने बरस बीत गए।  

पहले दिन जब रोहित को देखा, तो सुधा ने सोचा, रोहित उससे शादी करने से मना कर देगा।  रोहित किसी फिल्म का हीरो दीखता था, सुधा को लगा की रोहित उस जैसी सीधी - साधी लड़की से शादी क्यों करेगा।  पर जब माँ ने बताया की उसने हाँ कर दी है तो सुधा को लगा शायद रोहित को उसकी सादगी पसंद आ गयी है। 

रोहित का अपनी बेटियों से बहुत लगाव था।  सुधा ने कई बार सोचा की वो रोहित से बात करे अपने रिश्ते को समझने के लिए, पर रोहित घर पर कहाँ रहता था।  

रोहित ने हमेशा दुसरे शहर में रहना और नौकरी करना पसंद किया। दूर रहने से दूरियां और बड़ गयी।  सुधा ने भी फ़िक्र करना छोड़ दिया।  रोहित के बारे में बहुत कुछ सुनने को मिलता पर सुधा को इसकी कोई फ़िक्र नहीं होती। 

रोहित के बारे में आये दिन सुन - सुन कर सुधा परेशान हो जाती, पर हर बार यही उत्तर देती,' क्या मैं रोहित हूँ ?, क्या मैं उसकी माँ हूँ ?, तो मैं क्या करूँ, वो कोई बच्चा नहीं है, वो जो कुछ भी कर रहा है सोच-समझ कर ही कर रहा होगा।' 
' पर मैं अब कोई उत्तर दूँ ही क्यों, क्यों मैं सफाई देती रहूं, जो जुर्म मैंने किया ही नहीं , उसकी सज़ा क्यों मिले मुझे'
 
सुधा के सब्र का बांध जिस दिन टूटा, उस दिन को गुज़रे अभी कुछ ही साल हुए थे  । एक पूरा दिन रोहित घर पर ही था, न उस दिन करवा चौथ था, न दिवाली और न ही होली, और हाँ किसी बच्चे का जन्मदिन भी न था।  फिर रोहित घर पर क्यों था ? सुधा को दोपहर तक एहसास हुआ की रोहित कुछ कहना चाहता था, और शाम को रोहित ने कहा की वो देश छोड़ रहा है, क्योंकि वो किसी और के साथ रहना चाहता है, न तलाक की बात की और न ही बच्चों की बात की, बस इतना कह कर रोहित चला गया। 

सुधा ने पहले सोचा किस से वो ये बात करे, किसे बताये की क्या हुआ है। पर सुधा ने चुप रहना ही बेहतर समझा।  उस दिन के बाद सुधा अपने में और मस्त हो गयी।  रोहित कब आता कब जाता, उसे, जैसे इस बात से कोई मतलब ही न था। 
 
'रोहित को जहाँ जाना है वो जा सकता है, बच्चों के बड़े हो जाने के बाद, सुधा को साथी की कमी तो खलती थी, पर रोहित उस से बहुत दूर जा चूका था, और ऐसे में रिश्तों में दूरियां मिटाना नामुमकिन सा हो जाता है ।  

"सुधा, सुधा, क्या तुम जानती हो ?, तुमने मुझे क्यों नहीं बताया ?"
माँ की आवाज़ सुधा को बाहर से ही आ गयी थी। सुधा ने माँ की बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बस वो अपने कपड़े इस्त्री करती रही।
  
"सुधा मैं तुम से बात कर रही हूँ, क्या तुम जानती थी, बोलती क्यों नहीं ?" 
"माँ तुम जान कर क्या करती, क्या रोहित को रोक लेती, और रोक भी लेती तो क्या ?, क्या रोहित के मन को बांध लेती ?"

"अब सुनो मेरी बात, रोहित को समझा दिया है, और उसे बात समझ आ गयी है, अब तुम्हारी बारी है, थोड़ा ध्यान दो रोहित पर, तुम्हारा पति है वो, भूल तो नहीं गयी तुम ?, कोई और तो पसंद नहीं आ गया तुम्हें" 
"माँ, तुम घर जाओ, मैं कर लूंगीं" 

"क्या कर लूंगीं"
"माँ, जाने दो उसे, रोक कर क्या कर लोगी, किसी का मन कैसे बांध लोगी, उसका मन अब नहीं है यहाँ, और शायद कभी था भी नहीं !"
"कैसी बातें कर रही हो ?, क्या जाने दो, जाने दो बोल रही हो, पति है तुम्हारा"
"माँ, पति है, कोई बंधुआ मज़दूर तो नहीं है न, सो ही, कह रही हूँ जाने दो उसे, जाओ माँ तुम अपना काम करो, छोड़ो उसे और मुझे "
"पर तुम करोगी क्या, कहाँ जाओगी !"
"माँ, तुम हो, पापा हैं, बच्चे हैं, और मेरा काम हैं, ज़िन्दगी जीने के लिए हैं, बिताने के लिए नहीं, जीने दो उसे" 
बात कब आयी - गयी हो गयी पता ही नहीं चला, और रोहित, वही सब, अपनी मर्ज़ी से आना - जाना, दुसरे शहर नौकरी करना, सब वही चलने लग गया। 
किसने क्या कहा, किसके कहने से रोहित रुका, सुधा को इन् बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी।  
सुधा अपनी ज़िन्दगी और अपने बच्चों में मस्त रहने लग गयी  ।  



सब लोग इस बात को भूल गए पर सुधा के लिए भूलना मुश्किल था, रोहित का दिया हर ज़ख़्म उससे याद था, ज़ख्मों को सूखने का समय ही नहीं मिला था, क्यूंकि आये दिन रोहित की बातें सुधा के ज़ख्मो को कुरेदने का काम करती रहती। कुछ दिन से रोहित का व्यवहार बदला - बदला सा था, वो सुधा से बात करने के जैसे बहाने खोजता रहता, दिवाली पर उसने सुधा से अपने साथ फोटो खिचवाने की ज़िद्द भी की, जो की रोहित का सामान्य वयवहार से बहुत अलग था। अचानक रोहित के व्यवहार में बदलाव सुधा को थोड़ा अजीब लग रहा था, वो इस सब के पीछे का रोहित का मकसद नहीं समझ पा रही थी। 

आज पार्टी में जाने को जब रोहित का फ़ोन आया तो सुधा को थोड़ा गुस्सा तो आया पर अब वो पार्टी में जा कर देखना चाहती थी की बात क्या है। पार्टी पर से आने के बाद सुधा को सब समझ आ गया, रोहित का मकसद, उसका व्यवहार परिवर्तन सब समझ आ गया। 

रोहित राजनीती में अपना भविष्य बना रहा था, तो ये सब बदलाव रोहित अपनी छवि सुधारने और अपने को पत्नी - वृता और घरेलू दिखाने के लिए कर रहा था। 
सुधा ने बहुत सोच - विचार करने पर ये फैसला लिया की वो रोहित के आत्म-मकसद में अपने को नहीं शामिल होने दे गई। सुधा रोहित को और मौका नहीं देगी की वो उसे जैसे भी चाहे इस्तेमाल कर सकता है।  

सुधा ने रोहित से कानूनी तौर पर अलग होने का फैसला कर लिया, यही वजह थी की हर कोई उससे समझाने के लिए आ रहा था।  माँ - बाबूजी, भाई - बहन सब। पर सब अब क्यों आ रहे थे, रोहित को समझाने कोई क्यों नहीं आया कभी ? 
पर सुधा ने किसी की एक न सुनी, क्यूंकि अब उसने फैसला कर लिया था। 

अपनी ज़िन्दगी से जुड़े फैसले अगर हम खुद नहीं लेंगें तो कोई और हमारे लिए फैसले ले लेगा  ..... ये एक और कहानी, मेरी ओर से।


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रविवार, 24 अक्तूबर 2021

वही वाली कहानी

 

"बाजी, ओ बाजी, अब चलो भी, तुम तो देर कर दोगी, डॉक्टर चला गया तो फिर न जाने कब नंबर मिले"

"ज़रुरत क्या है इन्हें ले कर जाने की, तुम तो बस ज़िद पकड़ लो तो सुनती कहाँ हो किसी की"

"हर बार अकेले छोड़ कर जाना अच्छा भी नहीं लगता" सितारा ने अपने पति को चुप कराते बोला । 

"देखो अब उन से कुछ न कहना, अब उनकी उम्र हो चली है, अच्छा नहीं लगता" सितारा जानती थी की बहन-भाई के बीच में बोलना अब उसे बंद  करना होगा । 

हर एक की अपनी ज़िन्दगी है, बर्बाद है या आबाद, इसका फैसला कैसे हो।  जिसे जो अच्छा लगा वही वो करता गया। समीरा बाजी को देख बुरा तो लगता है, पर क्या किया जाये।  किसके दिल में क्या है इसका पता कैसे चले। 

बहुत वक़त गुज़र गया समीरा बाजी ने बात करना भी अब बंध सा कर दिया था, बस मतलब का ही बोलती थी।  शिकायत तो यु भी कभी नहीं करती थी पर अब तो कुछ कहती भी नहीं थी। खाना बहुत पसंद था पर अब वो भी कम कर दिया था। पहले कभी-कबार कहीं चली जाती थी, अपनी बहन या दूसरे भाई से मिलने पर अब वो भी अब बंद कर दिया था। 

लोग कहते हैं जब जवान थी तो, नाक पर मक्खी भी न बैठने देती थी, बस, शायद यही गुरु ले डूबा इन्हें ।  

कौन जाने किसके मन में क्या है, समीरा बाजी को देख कर लगता है, कहीं न कहीं वो समय के गुजरने का अंदाज़ा न लगा पायीं, अपनी ही धुन में रही, समझौता भी नहीं कर पायी। दूसरों से समझौता करना फिर भी आसान होता है, पर खुद से समझौता कैसे किया जाये, बहुत मुश्किल है अपने आप को समझाना।  

एक दो बार लड़का देखना - दिखाना भी हुआ, पर शायद आत्मविष्वास की कमी ही रही होगी, बाजी अपनी न कह कर बस अपने भाई बहनों की सुनाती रहती। और सामने वाला चीड़ कर खुद ही बोल - चाल बंध कर देता।  पर लगता है वो सबको भगाने के लिए ही ऐसी बातें करती। 

बाल काले कर बुढ़पा दीखता नहीं पर चेहरे की झुर्रियां सब बयान कर देती है, और फिर बालों की चांदी यूँ बढ़ने लग जाती है की बस फिर कुछ छुपाये नहीं छुपता।  उम्र का आकंड़ा घटा कर बताने से भी कोई फरक नहीं पड़ता, ऑंखें सब बयान कर देती है। 

हस्ती खेलती बाजी एक दिन बस चुप सी हो गयी। अब न तो हस्ती हैं और न ही रोती है।  शादी न सही कुछ अपना ही कर लेती, दो पैसे हाथ में होते तो ये सब न देखना पड़ता।  

ज़िन्दगी बड़ी अजीब सी होती है, अपना - अपना कह कर बस सब ठगते ही हैं। मिया - बीवी भी बूढ़े होने पर ही एक दुसरे को समझते हैं, उस से पहले तो बस यु ही चलता रहता है।

" बाजी वहां सब सच-सच बताना, कुछ छुपाना मत " समीरा बाजी ने अपनी भाई की बात सुन बस सर हिला दिया। 

कुछ दिन से बहुत बीमार सी लग रही थी, सो सितारा के कहने पर डॉक्टर के पास जाने को तयार भी हो गयी।  

डॉक्टर ने जाँच के बाद बताया की समीरा बाजी रोज़ खाने वाली दवाई बंध कर दी है, और, और डॉक्टर ने कुछ नहीं कहा, समीरा बाजी ने डॉक्टर को चुप करवा दिया और सबसे वापस चलने को कहा।  

सितारा का डर अब यकीन में बदल गया था, उसे कुछ दिन से महसूस हो रहा था की बाजी अब जीना नहीं चाहती, बस सब ख़तम कर देना चाहती हैं।  

"बाजी, कुछ तो बोलो क्या हुआ" गाड़ी में बैठने से पहले ही सितारा ने पति को कहा था की अब कुछ मत कहना और कुछ मत पूछना, मगर वो सब बेकार गया। 

"मैंने जाने का फैसला कर लिया हैं" ऐसा लगा समीरा बाजी ने न जाने कितने सालों बाद कुछ बोला, पर बोला भी तो जाने के लिए।




"ठीक हैं, मैं टिकट निकाल दूंगा, कब जाना चाहती हो" 

समीर बाजी चुप - चाप बैठी रहीं।  

"बोलती क्यों नहीं, कब जाना चाहती हो, और कहाँ"

सितारा ने पति के हाथ को दबोच कर इशारा करना चाहा। 

वापस घर पहुँच कर समीरा बाजी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गयी।  भाई ने आवाज़ दी पर वो भी न सुनी। 

बाजी की ये रात आखरी रात रही, बिना कुछ कहे वो चुप - चाप ही चली गयी, न टिकट निकालनी पड़ी और न ही बाजी ने कुछ बात की। 

क्या ज़िन्दगी रही, कुछ लोग कह रहे थे बस चली गयी, पर देखा जाये तो बाजी अपनी ज़िन्दगी अपनी शर्तो पर जी कर गयीं, जाते हुए भी किसीको कुछ न बता कर चली गयी। और उनकी कहानी ही रह गयी।


मंगलवार, 5 नवंबर 2013

प्यार कि अँगूठी ..........Platinum-Day of Love

  "अबोली मुझे तो घबराहट हो रही है. आज पहला दिन है कॉलेज का, सब कुछ कैसा होगा? लोग कैसे होंगें? अद्यापक कैसे होंगें? हमें वहां अच्छा न लगा तो?"
"पगली है तू तो! सब ठीक ही होगा, क्यूँ चिंता करती है. अद्यापक तो अच्छे होंगें ही शहर का बेस्ट कॉलेज जो ठहरा, और जहां तक लोगों के अच्छे होने की बात है तो सब लोग अच्छे ही होंगें इतना क्यूँ डरती है तू, सब हमारे जैसे पहली बार कॉलेज आये स्टुडेंट्स ही होंगें, तो अच्छे तो होंगें ही ना"

अबोली और सुम्मी दोनों बस स्टैंड पर बस का इंतज़ार करने लग गई, बस आते ही दोनों बस में चढ़ गयी और बस हवा से बातें करती हुई कॉलेज की ओर बढने लगी. घबराहट तो अबोली को भी हो रही थी पर वह उसे ज़ाहिर करके वह सुम्मी को और नहीं डराना चाहती थी, और माँ भी कई दिनों से समझा कम और डरा अधिक रही थी. माँ तो शायद सुम्मी से भी अधिक डरी हुए थी,और पिताजी को कई बार कह चुकी थी,' पहले दिन तो आप छोड़ आईये न बच्चियों को'.पिताजी ने यह कह मना कर दिया,'हम और तुम कहाँ-कहाँ तक साथ जायेंगें बच्चो के साथ'.
अबोली पहली बार अकेले बस में सफ़र कर रही थी, यु तो कई बार बस में सफ़र कर चुकी थी पर अकेले पहली बार कहीं भी जाना व्यक्ति के आत्मविश्वास को और भी प्रबल बनाता है. अबोली अपने ख्यालों में गुम थी कैसा होगा कॉलेज? कैसा होंगें लोग? अबोली अपना ध्यान बटाने के लिए बस में बैठे लोगों को देखने लगी, बस में कई लड़के-लड़कियां थे जो पहली बार कॉलेज जा रहे थे, सभी अपने दोस्तों के साथ बातों में व्यस्त थे, उसने सुम्मी की ओर देखा तो सुम्मी खिड़की से बहर देखने में अधिक व्यस्त थी. तभी अबोली की नज़र सबसे पहली सीट पर बैठे एक लड़के की तरफ गयी, वो ना तो किसी से बातें कर रहा था और न ही यहाँ-वहां देख रहा था, वह तो बस अपनी किताब की और नज़र गड़ाए हुए था.



"पसंद आ गया क्या?"
"क्या! क्या कह रही हो सुम्मी, तुम भी ना,में बस यु ही देख रही थी, किसी को देखना गुनाह है क्या?"
"हाँ-हाँ पहले बस देखा जाता है, और फिर अगर मन को बाह जाये तो बस देखते ही रहना पड़ता है"
"पागल है तू तो! कुछ भी बोले जाती है, कोई इंसान किसी को देख भी नहीं सकता क्या "
"मेरी प्यारी सखी, 'देखना'.और 'देखते ही जाना' दोनों में बहुत फर्क होता है"
"बस-बस चल अब हमारी मज़िल आ गई है, सीट छोड़ो और उतरने की तयारी करो"
दोनों सखियाँ अपनी सीट छोड़ बस के आगे के दरवाज़े की और बढने लगी. अबोली उस लड़के के बिकुल सामने खड़ी थी, उसकी नज़र उस लड़के से हट ही नहीं रही थी.इतने में बस स्टैंड आया और दोनों सखियाँ उतर गयी, अबोली गर्दन घुमा कर उसे देखती रही जब तक की बस उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गयी.
कॉलेज बस स्टैंड से कुछ ही दूरी पर था, दोनों अपनी क्लास में पहुँच कर सबसे आगे वाली सीट पर बैठ गयी. पहला दिन जैसे-तैसे गुज़र गया.घर वापस जाते हुए सुम्मी ने तो बस कॉलेज की बातें करनी शुरू करीं तो उसने चुप होने का नाम ही नहीं लिया, मगर अबोली का ध्यान तो बस की सबसे आगे वाली सीट पर था. ना जाने उसमें क्या बात थी अबोली उसे फिर से एक बार देखना चाहती थी.
दुसरे दिन दोनों सखियाँ फिर से उसी बस में सवार हुई और इतेफाक से उन्हें कल वाली ही सीट मिली, और अबोली ने नज़र उठा कर देखा तो उस सीट पर बैठा वो आज फिर अपनी किताब पढ़ रहा था.
"क्यूँ मेरी जान तेरी तो लाटरी लग गई"
"पागल है तू तो,ये बता तुने अध्यापक का कहा हुआ अध्याय पढ़ा क्या, जो कल अध्यापक जी ने बोला था?"
"हाँ मैंने पढ़ा और, मज़ा आ गया, बड़ा ही दिलचस्प था, मैंने तो दो बार पढ़ डाला"
"सच कहा तुने, सच में पढ़ने में मज़ा तभी है जब अपने मन-पसंद का विषय हो"
 
तीसरे दिन अबोली ने उस लड़के को फिर से देखा, और अबोली को अब तो बस सुबह होने का इंतज़ार रहता, और रवि-वार के दिन तो अबोली का मन ही ना लगता, अबोली को लगता कब ये दिन गुज़रे और कब सुबह हो और कब वो बस में बैठे और कब वो उसे देखे. और जिस दिन वो नज़र ना आता अबोली का तो बस दिन ही बुरा जाता,और अबोली का मन भी उस दिन बुझा-बुझा सा रहता.
 
देखते-देखते कॉलेज का एक साल भी निकल गया, सारी छुट्टियाँ अबोली ने बस उसी को याद करते-करते गुज़ार देती. उसका सावला रंग, किताब पढ़ते हुए उसके हाव-भाव, वो उसका खिड़की से बाहर देखना, और किताब में कुछ दिलचस्प बात पढ़ उसके चेहरे की हलकी सी मुस्कराहट उसे भुलाई नहीं भूलती. सुम्मी ने उसे कई बार कहा' मेरी जान तुझे प्यार हो गया है' पर अबोली उसकी बात हंस कर टाल देती. प्यार हो या कुछ और वो तो बस उसे ही देखना चाहती थी बस.
 
आज पूरे दो साल हो गए थे सुम्मी और अबोली को कॉलेज आते-आते, बस एक साल ओर फिर ये सिल-सिला भी ख़तम हो जायेगा, अबोली उसे ना देख पाने के डर से घबरा जाती. पर वो करती भी तो क्या करती. ज़िन्दगी इसी का नाम है, यहाँ वो नहीं मिलता जो दिल चाहता है,पर वो मिलता है जो किस्मत में लिखा होता है, हर कदम पर समझोता करना ज़िन्दगी की परिभाषा है शायद.
 
आज अबोली लम्बी छुटियों के बाद कॉलेज जा रही थी. और आज तो वो अकेली ही थी, सुम्मी अपनी छुटियों के बाद भी नानी के घर से लोटी नहीं थी. अबोली बस में जा बैठी, और देखा तो वो भी आज नहीं आया था, उसका तो मन ही खराब हो गया. ना तो सुम्मी आई और ना ही वो आया. अबोली अपनी किताब निकाल के पढने लग गई. उसकी पास वाली सीट जो की अभी तक खाली थी वहां अब कोई आ कर बैठ गया था, अबोली अपनी किताब पड़ती रही उसने चेहरा उठा कर भी ना देखा की कौन है. तभी उसने देखा की पास बैठे व्यक्ति ने भी किताब निकाली और उसे पढने लग गया. अबोली का ध्यान उसके हाथों पर गया तो उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लग गया, उसने धीरे से अपना चेहरा उठा कर पास बैठे व्यक्ति को देखा तो वो भी उसकी तरफ देख रहा था, उसके चेहरे पर हलकी सी मुस्कराहट थी.अबोली का दिल और भी जोर से धड़कने लग गया उसे लगा की उसके बदन में से सारा खून निकल गया हो और उसका बदन ठंडा पड़ गया है, घबराहट के मारे उसे क़प-कंपी होने लग गई.
 
"तुम्हारा नाम अबोली है ना, मैं तुम्हें रोज़ देखता हूँ, शायद हम-दोनों एक दुसरे को रोज़ देखते है"
अबोली को लगा की उसका बदन वहीँ जड़ बन गया हो, कुछ बोलना तो दूर उसे तो अब कुछ सुनाई भी नहीं दे रहा था, उसने कभी जिसकी कल्पना भी नहीं की थी वो हो रहा था. यु तो सपनो में वो उससे रोज़ बातें करती थी पर आज ये सब सच था और वो उससे बातें कर रहा था.
"अबोली मुझे तुम अच्छी लगती हो, रोज़ मैं सुबह होने का इंतज़ार करता हूँ , सिर्फ तुम्हें एक नज़र देखने के लिए,अगर तुम्हारा कोई बॉय-फ्रेंड हो तो बता देना मैं तुम्हें फिर कभी तंग नहीं करूंगा"
अबोली ज़ोर-ज़ोर से चिला कर ना बोलना चाहती थी, और उसे नज़र भर के देखना चाहती थी, पर उसने बस 'ना' में गर्दन हिला कर इशारा किया.
"इसका मतलब ना है ना अबोली"
अबोली के इतना कहते ही उसने अबोली के हाथ में एक छोटी सी डब्बी रखते हुए बोला,"अभी यही है मेरे पास पर जल्द ही सुंदर सी, चाँद सी चमकती हुई, सफ़ेद सी अंगूठी तुमको पहना, तुमको अपना बना कर, अपने साथ ले जाऊगा, बस मेरा इंतज़ार करना , करोगी न मेरा इंतज़ार. 

अबोली ने हां में गर्दन हिला दी, और शर्म और घबराहट के मारे खिड़की से बाहर झाँकने लग गई. कुछ देर में वो भी उठ कर चला गया. अबोली को लगा कही वो नाराज़ तो नहीं हो गया की 'मैंने उससे बात नहीं की'. पर बोलती भी तो क्या बोलती,कहती भी तो क्या कहती.उसे पता था प्यार-व्यार को माँ पिताजी ना समझेंगें और वो कभी पिताजी को तो दूर माँ से भी ना कह पायेगी इस बारे में.
अबोली उसे जाते देखती रही, कुछ देर और मिल जाती उसके के साथ कि तो अबोली उसे से बहुत सी बातें करना चाहती थी। पर मजबूरियां उससे ऐसा नहीं करने दे रही थीं। उसकी दी हुई डब्बी जब अबोली ने खोल कर देखी तो अबोली कि ऑंखें भर आयी,' हे भगवान् ख़ुशी के पलों कि उम्र छोटी क्यूँ होती है'.
 

 उस डब्बी में चाँद सी चमकती अँगूठी थी। अबोली मुस्कुराये बिना न रह सकी, ये पल उसके दिल में उम्मीद का दीप जला गया।
 
अगले दिन सुम्मी भी आ गई, अबोली की जान में जान आई. सुम्मी ने बताया की कॉलेज ख़तम होते ही उसकी शादी हो जाएगी उसी लड़के से जिसे काफी सालों से वह पसंद करती थी, जिसे वो तब मिली थी जब वो दसवीं की छुट्टियों में नानी के घर रहने गई थी, लड़के को देखते ही उसे पसंद कर लिया था उसने और नानी को भी बता दिया था, सो नानी ने उसकी माँ से बात की और बस बात बनते-बनते बन ही गई थी.
 
दोनों सखियाँ बस में बैठ गई पर आज अबोली ने उस ओर नहीं देखा, अबोली किसी को झूठी आस नहीं देना चाहती थी ओर न ही झूठी आस के सहारे जीना चाहती थी.
दिन बीते महीने बीते और फिर साल भी बीत गया. कॉलेज ख़तम हो गया, सुम्मी की शादी भी हो गई थी. माँ-पिताजी अबोली के लिए भी लड़का तलाश कर रहे थे. कभी माँ को और कभी पिताजी को लड़का पसंद ना आता.
 
अबोली को उस बस वाले लड़के की बहुत याद आती थी, उसकी दी हुई छिठी अबोली दिन में कई बार पड़ती थी,'अबोली गर तुम भी मुझे पसंद करती हो तो एक बार बोल दो'.
पर वो हाँ बोलने वाला दिन आ ही ना सका, और वो भी दुनिया की भीड़ में कहीं खो गया था. पर यादें ज़ालिम होती है छोड़ कर जाती ही नहीं, और चैन से जीने भी नहीं देती.
 
"अबोली तयार हो गई, लड़के वाले तुम्हे बुला रहे है,लड़का भी साथ आया है, चलो मुझे और तुम्हारे पिताजी को लड़का बहुत पसंद है, पर गुड़िया रानी कोई जल्दी नहीं है, तुमको ना पसंद आये तो ना कह देना, घबराना मत ये तेरी सारी ज़िन्दगी का सवाल है" माँ ने अबोली को प्यार से समझाया और उसे उस कमरें में ले गई जहां लड़के वाले बैठे थे. अबोली ने एक बार भी नज़र उठा कर किसी को भी नहीं देखा.
 
थोड़ी दीर में लड़के की भाबी अबोली को दुसरे कमरें में ले गए और उससे सवाल पूछने लग गई,"तुम्हें क्या-क्या अच्छा लगता है? खाना बना लेती हो? और क्या-क्या शोंक है तुम्हारे?" अबोली ने सभी प्रशनों के उतर दे डाले. फिर वह बोली अबोली,"देवर जी तुमसे कुछ पूछना कहते है". कमरें में किसी के दाखिल होते सभी वहां से चले गए.
अबोली हाथ में हाथ डाले बैठी निचे कि ओर ही देखती रही। उस लड़के ने अबोली का हाथ अपने हाथ में लिया और तभी उसे जानी-पहचानी, कभी ना भूल पाने वाली आवाज़ सुनाई दी,"अबोली मुझे तुम अच्छी लगती हो, रोज़ मैं सुबह होने का इंतज़ार करता हूँ,सिर्फ तुम्हे एक नज़र देखने के लिए,अगर तुम्हारा कोई बॉय-फ्रेंड हो तो बता देना मैं तुम्हें फिर कभी तंग नहीं करूंगा"
अबोली ने झट से गर्दन उठाई और धीरे से बोली," मुझे भी तुम बहुत अच्छे लगते हो, और मेरा कोई बॉय-फ्रेंड नहीं है, क्या तुम बनोंगे मेरे बॉय-फ्रेंड"?
अबोली में तुम्हें अपने साथ ले जाने आया हु, अब तो बस मेरे साथ चलना होगा बस।
और इतना बोलते ही औसने अबोली कि ऊँगली से चांदी कि अंगूठी उतार कर चाँद सी चमकती प्लैटिनम (Platinum) कि अंगूठी पहना दी।



ज़िदगी भी आजीब होती है, हर बार इंसान को नतमस्तक करके ही दम लेती है.

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

दर्द भी ज़िन्दगी का हिस्सा है.......






 "अब लिखोगी भी या हमारा तमाशा बना कर ही छोड़ोगी"

अबोली ने आखिर कर लिख ही डाला ख़त, और दे दिया उस छोटे लड़के को जिसे माँ लेकर आयी थी. ना चाहते हुए भी कितने काम ऐसे करने पड़ते है जैसे की शायद सामने वाले का किसी जन्म का क़र्ज़ उतरना हो, मगर अबोली ने तो आज तक सभी काम वही किये जो उस से कहा गया करने को. पिता ने सातवी कक्षा पास होने पर कहा घर बैठ कर पढ़ाई करनी सो ऐसा ही सही, पिता ने कहा गृह विज्ञान की पढ़ाई करनी है सो ऐसा ही सही, पिता ने कहा साजो सिंगार का सामान मेरे घर में लड़कियों के लिए नहीं है बिया के अपने घर जाओगी तो जो मन में आये वाही करना सो ऐसा ही सही, पिता ने कहा घर से बाहर मेरे सिवा किसी के साथ नहीं जाना सो ऐसा ही सही.

पिता ने सब बातों पर पाबन्दी तो लगा दी थी पर सपने देखने पर पाबन्धी ना लगा पाए, या यूँ कहें अबोली के सपनों के शहर पर पिताजी का नियंत्रण ना था. सोते या जागते, खुली या बंध आँखों से सपने देखने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता क्यूंकि कोई जान ही नहीं पाता की सामने वाला कब सपने देख रहा है. अबोली ने सपनों की अपनी  एक छोटी सी दुनिया बनाई हुई थी. जिसमें अबोली की अपनी जिंदगी अपनी थी उस पर किसी और का राज़ चल ही ना सकता था, उसके सपनों की हर दिवार प्यार से बनी थी, और प्यार क्यूंकि ना तो दिखाई देता है और ना ही बताया जा सकता है प्यार तो बस महसूस ही किया जा सकता है इसलिए अबोली का सपनों की दुनिया में हर वक़त-बेवक्त खोये रहना किसी को ना दिखाई पड़ता था. अबोली अपने सपनों की दुनिया में वो सब करती जो वो हकीक़त में वो नहीं कर सकती थी, सपनों की दुनिया सही मानो में उसके जीने का एक मात्र कारण था.

बचपन में अबोली अपनी माँ को तिल-तिल करते हुए मरते देखती थी, विरोध करने पर मार खाना और फिर हर बात पर सहमती दिखाना माँ ने तो सीख लिया था पर अबोली को ये सब मंजूर नहीं था. विरोद करने पर मार से बचने के डर से ही शायद उसने बचपन में ही अपनी एक सपनों की दुनिया बना ली थी, और इसी सपनों की दुनिया में वो सब कुछ करती थी जो वो हकीक़त में करने का सोच नहीं सकती थी.

सपनों की दुनिया में जीते-जीते बचपन तो बीत गया पर अब क्या, शायद अबोली को सचाई का आभास अभी भी न हुआ था. हकीक़त की ज़िन्दगी सपनों की ज़िन्दगी से बिकुल उल्ट होती है, पर वो तो अभी भी सपनों में जी रही थी. अब तक की ज़िन्दगी तो सपनों के सहारे कट गई थी पर अब क्या अब तो उसका बिया होने वाला था. आज वह दिन था जब वो बिया के अपने घर जाने वाली थी.

ना जाने किस बात पर लड़के वालों और लड़की वालों के बीच मन-मुटाव हो गया था. लड़के वाले बिना डोली लिए वापस लौट जाने की धमकी दे रहे थे. किसी भी तरहां ना मानाने पर अबोली के पिता ने उसकी माँ को ये तरकीब बताई थी. सो माँ कागज़ और कलम ले कर अबोली के पास चली आई और बोली," ये ले करमजली कागज़ और लिख चिठ्ठी अपने होने वाले पति के नाम, बस इतना ही लिखना की 'मुझको यहाँ से ले जाओ नहीं तो ये लोग मुझे मार डालेगें, मैं मरना नहीं चाहती,  मैं आपके साथ जीना चाहती हूँ, मैं आपके साथ किसी भी हाल में रह लुंगी बस मुझे यहाँ से ले जाओ' जल्दी लिख डाल".

अबोली माँ की बात सुन हक्की-बक्की रह गयी. वह अपने को पहली बार ज़िन्दगी में इतना बेबस महसूस कर रही थी, किसी तरहां हिम्मत जुटा कर माँ से बोली," माँ मुझे कहीं से ज़हर ला दो पर मुझे डोली में बैठ कर ना जाने दो, मैं तुम्हारी बिटिया हूँ, तुम कैसे मुझे इन लोगों के साथ जाने दोगी जो अभी मुझे छोड़ देना चाहते है, वह बाद में क्या-क्या न करेंगें इससे तो अच्छा होगा तुम मेरा अपने हाथों से अभी यहीं गला दबा दो". पर शायद माँ भी बिरादरी के हाथों मजबूर थी, उसे अपनी दो और बेटियों को अभी बिहयाना था सो माँ भी अपनी आँखों के मोटे-मोटे आंसू छुपाती हुई बोली,"अब लिखोगी भी या हमारा तमाशा बना कर ही छोड़ोगी, ना जाने कौन से फूटे करम ले कर पैदा हुई थी की ये दिन दिखा रही हो हमको".

"लेकिन माँ इसमें मेरा क्या कसूर है, मुझे तो पता भी नहीं के बाहर क्या हुआ है, किस बात पर अचानक तुम भी मुझ से नाराज़ हो गयी हो, मैं तो बस तुम्हें सच बता रही हूँ, जो आज मुझे किसी की बात पर छोड़ने के लिए तयार है वो कल ना जाने किस की बात पर मुझे घर से बाहर निकाल दें या मार ही डालें, सो बेहतर होगा तुम मेरा अभी इसी समय अपने हाथों से गला दबा दो".

माँ दोनों छोटी बहनों को ले आई और बोली,"ये अगर ना होती तो मैं ही तेरा गला दबा देती"

माँ का इतना कहना था की अबोली ने झट से भीगी पलकों से ही ख़त लिख डाला वैसे ही जैसे माँ ने कहा था. और अबोली उस दिन तो जिंदा 'शायद अपने घर' चली गयी, और माँ- पिताजी का क़र्ज़ भी उतार पिताजी के घर से अपने सपनों की दुनिया और अपना कफन ओढ़े चली गयी, मन में बस एक अरमान बाकी रह गया की शायद वो भी विदा हो कर पिताजी के घर से जा सकती फूलों से भरी डोली में बैठ कर.

मजबूरी भी अजीब सी कुछ है,
ना तुम को प्यार दिखाने का मौका देती है,
ना हमको आंसूं बहाने का मोका देती है,
ना होती ये मजबूरी तो,
तुम भी हंस कर विदा कर देती एक बार,
और हम भी आँखों में ख़ुशी के आंसू ही लिए ,
तेरे ख्यालों में अपना हंसी चेहरा छोड़ जाते.

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शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

रिश्तों में पारदर्शिता होना अनिवार्य है...




 "सच में कितना सुंदर है न ये, और इसका रंग तो देखो एकदम सफ़ेद है, आस्मां के सफ़ेद बदल के जैसा, और कितना मुलायम है न एकदम दादी की कहानियों वाली  राजकुमारी के कपड़ों जैसा"
" हाँ अबोली देखा मैंने ने कहाँ था ना की मेरी पिताजी  मेरे लिए एक बहुत सुंदर खिलौना लायेंगें, सो वो ले आये, मैंने पिताजी को बोला था की मेरे लिए एक बहुत सुंदर खिलौना लाना और देखो तो कितना सुंदर है ये"
" हाँ सुम्मी ये तो बहुत ही सुंदर है, थोड़े दिनों के लिए मुझे दे दो न, में इसे बिलकुल संभाल कर रखूंगी किसी को न दूंगीं, रात क सोते वक़त भी अपने पास ही रखूंगी"
"नहीं! नहीं अबोली ये मैं ना दूंगीं ये तो बस मेरा टेडी है मैं किसी को ना दूंगीं, जब से पिताजी लायें है तब से मैं इसे अपने पास ही रखती हूँ, रात को सोते वक़त भी ये मेरे साथ ही होता है और मुझे अब रात को डर भी नहीं लगता"
"पर एक दिन के लिए तो दे दो न, मैं सच में इसे अपने पास ही रखूंगी और फिर कल तुम ले जाना, तुम चाहे तो मेरा कोई भी खिलौना ले जाओ बदले में"
" नहीं अबोली ये मैं ना दूंगीं"
इतने में अबोली की माँ भी वहां आ पहुंची, अबोली ने माँ को टेडी दिखाया और बोली," देखो न माँ कितना अदभुत है न, माँ सुम्मी से कहो न की मुझे दे दे बस एक दिन के लिए, मैं भी तो इसे अपने खिलोने देती हूँ ना"
"अबोली वो नहीं देना चाहती अगर तो रहने दो ना क्यूँ तुम जिद्द कर रही हो" .
सुम्मी ने अपना खिलौना अबोली के हाथ से छीना और मुस्कुराती-नाचती अपने घर की ओर चल दी.
अबोली सारी रात उस खिलोने के बारे में ही सोचती रही और रात भर सो भी ना सकी. सुबह उठ कर माँ से बोली, माँ मुझे भी ले दो ना वैसा ही टेडी, फिर में तुम से कभी कुछ ना मांगूगी. माँ हलकी सी मुस्कराहट अपने चहेरे पर ला कर बोली ठीक है ले देंगें. और अबोली ख़ुशी-ख़ुशी अपने कमरें में जा कर खेलने लग गयी. माँ भी जानती थी की उसकी गुड़िया ने पहली बार कुछ लेन को बोला था, नहीं तो जो देदो उसी में खुश रहती है.
अबोली ने सुम्मी को भी बताया की उसकी माँ भी उसे ऐसा ही खिलौना ला कर देगी. दिन हफ़्तों में बदल गए पर अबोली को अपना खिलौना अभी ना मिला था. माँ से दुबारा कहना उसे ठीक ना लगा था, माँ नाराज़ हो गयी तो क्या पता उसे खिलौना मिले ही ना.
कुछ दिन से अबोली भी सुम्मी के घर जादा जाने लग गयी थी, अबोली को सुम्मी के खिलोने के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता था. जब भी वो सुम्मी के घर जाती तो  बस उसी खिलोने को उठाई रखती, हर दम उसे सीने से लगायी रहती.
एक दिन अबोली स्कूल से लोटी तो उसने सुम्मी की माँ को अपने घर से निकलते देखा, वो कुछ गुस्से में लग रही थी.
अबोली ने अन्दर जा कर अपना बस्ता रखा ओर माँ से कुछ पूछना चाहा पर उसने देखा माँ भी कुछ परेशान लग रही थी.
अबोली चुप करके हाथ-मुह धोह कर खाना खाने बैठ गयी. खाना खा कर वो माँ से बोली," माँ मैं सुम्मी के घर खेलने जाऊ".
"नहीं तुम आज से कहीं नहीं जाओगी, और सुम्मी के घर तो बिलकुल भी नहीं, बस घर में ही रहोगी" माँ गुस्से में बोली.
अबोली चुप करके अपने कमरें में चली गई. उसकी समझ में ना आ रहा था की माँ क्यूँ गुस्से में है.
अगले दिन फिर से स्कूल से आ कर अबोली ने माँ से सुम्मी के घर जाने के लिए पूछा, माँ ने आज भी गुस्से से मना कर दिया, ओर फिर कभी ना पूछने के लिए भी कह दिया.
आज माँ को गुस्सा हुए दो दिन हो गए थे. माँ अबोली से ठीक से बात भी न कर रही थी. अबोली ने सोचा आज तो माँ गुस्सा ना करेगी आज तो उसका जन्मदिन था. अबोली ने स्कूल से आ कर माँ से पूछा," माँ क्या आज मैं सुम्मी के घर जाऊ, आज तो मेरा जन्मदिन है, उसे मिठाई भी दे दूंगीं".
माँ चुप करके अन्दर गई और अबोली को एक बड़ा सा पार्सल सा ला कर दिया, अबोली ने पार्सल खोला तो उसमें से सुम्मी के खिलोने जैसा ही पर उससे भी बड़ा टेडी  निकला, अबोली ख़ुशी के मारे नाचने लग गई और माँ के साथ लिपट गई और बोली," माँ ये तो बहुत ही सुंदर है"
माँ गुस्से में बोली," अब तुम खुश होना तो सुम्मी का खिलौना लोटा दो, सुम्मी भी खुश हो जाएगी"
नन्हीं अबोली को आज पता चला कि सुम्मी क़ी माँ उस दिन घर क्यूँ आई थी और माँ उससे दो दिन से क्यूँ नाराज़ थी.
अबोली ने वो अपने वाला खिलौना माँ के पास रखा और माँ से बोली," माँ मैंने सुम्मी का खिलौना नहीं चुराया" और फिर वो अपने कमरे में चली गयी.
उस दिन अबोली कि माँ शाम को सुम्मी के घर जब अबोली के जन्मदिन कि मिठाई देने गई तो सुम्मी कि माँ ने बताया कि सुम्मी का खिलौना कल ही मिल गया था, सुम्मी के भाई ने उसका खिलौना कहीं छुपा दिया था.
अबोली कि माँ झट से घर लौट आई और सीधी अबोली के कमरें में गई ओर देखा तो अबोली ने वो बड़ा सा टेडी एक कोने में रखा हुआ था और वो अपने पुराने खिलोनो से खेल रही थी.
उस दिन अबोली ने छोटी सी उम्र में एक बहुत बड़ा सबक सीख लिया था कि रिश्तों में पारदर्शिता होना कितना अनिवार्य है.