रविवार, 28 अक्तूबर 2012

तुमने ने ना जाने


बेगानी सी आवाजों में अपनी आवाज़ ढूंढते थे हम,
आँखों में सबकी अपना अक्स दुढ़ते थे हम,
चुप रह कर अपनी आवाज़ को सुनना चाहते थे हम,
 कुछ ना बोलने पर भी अपनी बात को कहना चाहते थे हम,
चेहरों की भीड़ में अपना ही चेहरा दुढ़ते थे हम,
जिंदा लाशों में अपनी ही रूह को लादे फिर रहे थे..

तुमने ने ना जाने किस तरहां पुकारा हमको,
की मेरी रूह में कुछ हलचल सी हो गई,
तुमने ना जाने कौन सा साज़ छेड़ा की,
की मेरी ऑंखें भी चमक कर नाच उठीं,
तुमने ना जाने क्या कहा की,
हम खुद से बेगाने से हो गए.

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