शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

हिंदी प्रेम कहानी - एहसास

एहसास कब समझतें है की उम्र ढलने को है,
उम्र काया की कोमलता तो ढाल सकती है
पर एहसासों को कम्बख़त ढलने नहीं देती।

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आइना देख एक बिखरी लट को कान के पीछे अटकाते हुए लतिका आज भी शर्मा सी जाती है।  आज भी हर बात, हर सपना, हर उम्मीद वैसे की वैसे ही कायम है।  उम्र ढलने को है पर जज्बातों को कहाँ एहसास होता है इसका।  वही गीत आज भी गुन - गुनाते है लब, वही सपने आज भी नम कर जाते है पलकों को। अपनी ही धुन में जीते - जीते ना जाने कब ढल गए इतने बरस।  पचीस साल होने को आये पर लतिका आज भी उस एक नज़र को तरसती है, आज भी हर सुबह एक नयी किरण ले कर आती है, आज भी हवा का एक झोंका उसके नज़दीक होने का एहसास दिलाता है, जो नज़दीक हो कर भी नज़दीक नहीं है कहीं।


" लतिका, लतिका ...... लतिका कहाँ हो लतिका"
लतिका को सपनो से दुनिया से हककीता में ले आने वाली ये आवाज़ थी उसके पति की बॉस की बीवी की।
" मैं यहाँ हूँ, आई, बहुत दिनों में आई आप, आप तो इधर आती ही नहीं" लतिका आशा जीजी को देख हैरान हो बोली।
"लतिका ! चलो मेरे साथ, जल्दी चलो" आशा जीजी लतिका का हाथ पकड़ खींचते हुए बोली।
"पर कहाँ जाना है जीजी, कुछ बताओ तो, हवा के घोड़े पर सवार हो कर आई हो, बैठो तो, मैं शरबत लाती हूँ, फिर बातें करते है" लतिका बोली।
"नहीं, बैठो मत चलो मेरे साथ, जल्दी है, गाड़ी में बैठो" जीजी बोली।
"पर क्या हुआ है, कहाँ जाना है, जीजी  तुम तो मुझे डरा रही हो" लतिका झांझलाते हुए बोली।
"लतिका, सिटी हॉस्पिटल जाना है, चलो" जीजी बोली।
"सब ठीक है ना" लतिका कुछ समझ नहीं पा रही थी।
"लतिका जल्दी चलो, वो लोग ललित को सिटी हॉस्पिटल ले गएँ है, उसका एक्सीडेंट हो गया है, बहुत चोट आई है"

"क्या हुआ ललित को, जीजी", " एक्सीडेंट कैसे हुआ, कब हुआ"

लतिका के सवालों का कोई जवाब नहीं मिला, बस वो जीजी के साथ हॉस्पिटल कब पहुंच गयी पता ही ना चला।

डॉक्टर ICU से बहार आया तो सब उसे देख खड़े हो गए, लतिका चेहरा नीचे कर एक और बैठी थी और सोच नहीं पा रही थी की वो क्या सोचे ।

डॉक्टर बोला, "लतिका जी, ललित को बहुत चोट आई है, पर घबराने की कोई बात नहीं है, बस कुछ महीने का आराम और सब ठीक हो जायेगा, पर उसके चेहरे पर बहुत घाव आएं है, ठीक तो हो जाएंगें पर समय लगेगा, तब तक वो बोल भी नहीं पाएगा, आपको उसका बहुत धयान रखना होगा, आप चाहें तो मैं नर्स का बंदोबस्त कर देता हूँ"

लतिका समझ नहीं पा रही थी की क्या प्रतिक्रिया करे,'बोल नहीं पाएगा ललित' इस बात ने लतिका के चेहरे को मंद सी मुस्कान ने घेर लिए ।

"नहीं ! नर्स नहीं चाहिए, मैं हूँ ना" लतिका बोली।

ललित पूरे एक हफ्ते बाद घर वापस आ कर आराम कर रहा था।  लतिका वहीँ उसके पास बैठी बस उसे ही देखे जा रही थी, ' तुम ने कितनी  कोशिश की मुझसे दूर भागने की, पर आखिर आज तुम मेरा पास हो, और अगले कई दिनों तक तुम मेरे ही रहोगे', पचीस साल मैंने वही किया जो तुमने चाहा या कहा पर अब कुछ दिन तुम मेरे हो बस मेरे ही हो' सोचते - सोचते कब आँख लग गयी लतिका को याद ही नहीं रहा।  

कब सुबह हुई पता ही ना चला।  लतिका आज कुछ सज - धज कर लाली - पाउडर लगा कर ललित के लिए चाय और नाश्ता बना लाई। ललित आँखें खोले बस लतिका की और ही देख रहा था। ''सुनो जानते हो आज से बस 
मैं  बोलूगीं और तुम सुनोगे,  बस सुनोगे",  हलकी सी हसीं लब पर लाते हुए लतिका, ललित को सहलाने लगी।  "क्या तुम्हें पता है जब पहली बार तुमको देखा था तो लगा की बस ज़िन्दगी प्रेम और प्यार में बीत जाएगी। पर तुम तो बड़े खड़ूस निकले, कभी प्यार भरी नज़र भी नहीं डाली" ललित नाश्ता करते हुए बस लतिका को ही देखे जा रहा था। नाश्ते के बाद लतिका, ललित के चेहरे को साफ़ करते हुए, सहलाने लगी, न जाने क्यों आज उसे ललित वही ललित लगा जो उसे देखने आया था, और लतिका को अनगिनत सपने दे कर चला गया था। लतिका के लब न जाने कब ललित की ओर बढ़ गए और लतिका ने वही किया जो वो कब से करना चाहती थी, ललित के चेहरे की हर चोट को वो अपने लबों से पोंछ देना चाहती थी। 

हलकी सी हसीं ओर थोड़ी सी शर्म चेहरे पर लिए  लतिका गुन - गुनाने लगी ,"क्या तुमको गाना पसंद नहीं है क्या ?"

ललित ऑंखें झपकते हुए दूसरी और देखने लग गया। 

"देखो! अब मुँह न फेरो, अब यहाँ बस मैं और तुम हैं। मेरी तरफ देखो, प्यार से न सही, पर मुँह न फेरो "
"अच्छा, ये बताओ खाओगे क्या ?" 

लतिका ने देखा ललित की आँखों मे पानी भरा हुआ था, लतिका ने अपनी साड़ी के पलु से ललित के चेहरा साफ़ करा और गुन-गुनती वहां से चली गई।  

दोपहर ढलने को थी, बाहर हलकी - हलकी बारिश हो रही थी, ललित की न जाने कब आँख लग गई थी, बरसात की आवाज़ से उसकी नींद खुल गई, ऑंखें खोली तो लतिका उसके पास बैठी उसको ही देखे जा रही थी।  
"सुनो, ये जो तुम्हारे चेहरे पर हलकी सी हसी होती हैं सोते हुए, वो जागने पर कहाँ चली जाती है। चलो खाने का वक़त हो गया हैं, फिर दवा भी तो लेनी हैं । ठीक होना हैं न, जल्दी से ठीक हो जायो, एक ही दिन मे तुम्हारे , न बोलने की कमी सी महसूस होने लगी हैं "

न जाने दिन कब बीत गए लतिका रोज़ नए - नए कपड़े पहन, ललित का और सारे घर का काम करती रहती, और बाकी वक़त बस ललित से बातें करती और गुन - गुनाती रहती।  
 
"लतिका, ओ लतिका, कहाँ हो ! लतिका " आशा जीजी की आवाज़ सुन लतिका ने किवाड़ खोल दिया।  "चलो बई, डॉक्टर के पास जाना हैं, ललित उठ गया क्या ?, अब कैसा महसूस करता हैं ?"

आज, डॉक्टर के पास जाना हैं, इसी सोच से लतिका का दिल बहुत घबरा रहा था, अब ललित ठीक हो गया तो, तो वो उससे फिर दूर हो जायेगा।  बस इसी सोच से लतिका का मन बहुत घबरा रहा था।

"अरे बहुत बढ़िया, तुम अब बहुत बेहतर लग रहे हो, लतिका ने कोई कमी नहीं छोड़ी देख - भाल मे"।  

डॉक्टर ने जाँच के बाद लतिका और बाकी सबको बताया की, ललित की सेहत बहुत बेहतर लग रही हैं, और डॉक्टर ने कहा की वो हैरान हैं की अब तक ललित ने बात करना क्यों नहीं शुरू किया। 

लतिका घर लौटते ही सबके के लिए चाय बनाने चली गई, लतिका आज ललित के सामने भी नहीं गई, सुबह कपड़े बदलते और नाश्ते के समय भी उसने ललित की और एक बार भी न देखा, ललिता के दिमाग मे बस वही ललित आ रहा था, जो खड़ूस सा था। चाय-नाश्ता दे वो बिना किसी से बात किये खाना बनाने चली गई।
 
'फिर वही दिन आ जायेंगें क्या !' लतिका का मन बहुत घबरा रहा था।

'ये सब हसीं पल वो कभी भुला नहीं पाएगी। ललित और वो, वो ओर ललित, कितने हसीं पल थे, ललित को गले लगाना, उसे सहलाना, कितने बरस उसने इन पलों के बारे मे, बस सोचा या कहानियों मे ही पढ़ा था। हसीं पलों मे जीना एक ख्याब हैं ओर ख्याब बस आँखें खुलते ही हवा हो जाते हैं। लतिका की आँखों के आसूं रुकने को ही नहीं आ रहे थे। बस कुछ और दिन मिल जाते तो वो सारी उम्र जी लेती, और आने वाले पलों के लिए बहुत सी यादें बटोर लेती।'

'बस एक और दिन मिल जाये तो वो ललित को ठीक से देख ले, एक दम करीब से, अपनी निगाहों मे बस, उसकी हर अदा बसा ले। बस एक दिन और मिल जाये, तो वो ललित को करीब से देख ले, इतने करीब से की हर सांस उसकी बस ललित के बदन की महक से भर जाये, उसका हर एहसास ललित की महक से भर जाये । एक बार बस, एक और मौका मिल जाये तो वो हमेशा के लिए ललित की छवि को  मन मे बसा उसकी बाँहों मे दम तोड़ दे।'
 
"ललिता, ललिता , ओ ललिता" आशा जीजी ज़ोर- ज़ोर से आवाज़ लगा रही थी।  

आशा जीजी की आवाज़ ने लतिका के सपनो और सोच की दुनिया से निकले पर मजबूर कर दिया। लतिका भागती हुई बैठक मे पहुंच गई, "लतिका, ललित तुम्हें बुला रहा हैं", 'ललित बुला रहा हैं, माने !'

'लतिका' , लतिका ने ललित की और देखा, "लतिका, ललित चाय पिलाने को कह रहा हैं, लो ", लतिका ने आशा जीजी के हाथ से चाय की प्याली ले ली और, ललित की और बढ़ने लगी, ललित मंद सी आवाज़ मे अभी भी लतिका को बुला रहा था।  

लतिका भरी हुई आँखों से ललित को चाय पिलाने लग गई, दोनो की निगाहें बस एक दुसरे पर ही टिकी थी। चाय ख़तम होने पर जैसे ही लतिका पायली रखने के लिए उठने लगी तो उसे एहसास हुआ की ललित की उंगलियां उसकी उंगलियों को जकड़े हुई थी, लतिका की आँखों का पानी, ज़माने को अपनी हस्ती का एहसास दिलाना चाहता था, पर लतिका हर एहसास को अपना ही रहने देना चाहती थी, हर एहसास को ज़माने के साथ साझा करने से, एहसास अपना नहीं रहता ।   

 "चलो बई सब ठीक हो गया, अब हम चलते हैं, तुम लोग भी आराम करो, लतिका, कुछ ज़रूरत हो तो बता देना, चलो फिर मिलते हैं"।  
लतिका, आशा जीजी को रुक्सत करने उनके पीछे चल दी, आशा जीजी ने लतिका को गले से लगा लिया और बोलीं, "बस आज इन आँसूओं को रोकना मत, पर आज के बाद इन्हें भूल जाना बस, और अपना और ललित का ख्याल रकना, लतिका, वक़त ही नहीं कभी - कभी लोग भी बदलते हैं"।  

आशा जीजी तो चली गई, पर अब वो क्या करे, क्या करे, धरती अपना सीना खोल दे और वो बस उसकी गोद में समा जाएँ, पर वो सीता नहीं हैं, लतिका हैं लतिका, बस लतिका हैं।  
  
लतिका को लगा हवा का हर झोंका लतिका, लतिका बोल रहा हैं, धीमी - धीमी हवा लतिका-लतिका कर रही हो, पर स्टील का ग्लास गिरने की आवाज़ ने बताया की हवा नहीं, बल्कि ललित, उसे को बुला रहा था। 

लतिका वहां से भाग जाना चाहती थी, पर कैसे जाये, ललित बार-बार उसका नाम ले रहा था। लतिका घबराती हुई ललित के कमरे मैं दाखिल हुई तो देखा ललित, पलंग से उठने की कोशिश कर रहा था।  लतिका ने भाग कर ललित को सहारा दिया और ललित वहीँ  पलंग पर बैठ गया, "देखो डॉक्टर ने कहा हैं अभी कुछ वक़त लगेगा, कुछ दिन और बस, फिर जहाँ जाना हैं चले जाना" लतिका बिना ललित की ओर देखे सब एक साँस मैं बोल दिया। 

"क्या, तुम मुझ से दूर जा पाओगी"?

लतिका के आँसू अब अपनी हर हद को तोड़ देना चाहते थे, ओर उसकी आँखों को छोड़ कर ललित के सीने को भिगो देना चाहते थे, और ललिता, वो बस इस पल मैं समा जाना चाहती थी, "बोलो, क्या तुम मुझे अपने से दूर कर देना चाहती हो, इतना प्यार और ये सब एहसास कैसे छुपा लेती थी, बोलो, ललिता क्या हैं ये सब, बोलो", और अगले पल ललित ने ललिता को अपनी बाहों में समा लिया, ललिता अपने आसुंओ से ललित को अपने हर एहसास का एहसास दिला देना चाहती थी। 


और दूर कहीं फिर वही गीत बजने लगा - तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा नहीं......और फिर वही एहसास दिल पर दस्तक देने लगे  ...........



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