देवेन ने बस एक बार मुड़ कर देखा, उस घर की तरफ जिसे पाने के लिए उसे धूप, बारिश, गर्मी, सर्दी सब सही, आज उसे बेच कर वो चल दिया। सबसे छुपा कर बेच दिया. देवेन अब बस दुनिया में खो जाना चाहता था.
देवेन उस घर को बेच चला था जो कभी बसा ही नहीं, तक़दीर के हाथों का खिलौना बन कर रह गया था. आज़ाद पंछी सा था वो, पर कभी ऐसा हुआ ही नहीं के वो आज़ाद रह पाता.
शादी होने के बाद देवेन पत्नी को बहुत ज़्यदा तवज्जो न दे पाया, उसे समझ नहीं आ रहा था की कैसे balance रखे रिश्तो के बीच. सो कोई भी रिश्ता उसे बाँध कर न रख पाया.
काम के सिल-सिले में देवेन जाएदा तर घर से बहार ही रहता, और घर रहना उसे भाता भी नहीं था. Joint Family में रहना देवेन को बहुत भा रहा था। न ज़िम्मेदारी दिखेगी न निभानी होगी। देवेन जब भी घर जाता बीवी का रोना बच्चों के लिए, भाई-भाभी का रोना पैसे के लिए ये सब उसे उदास और irritate ही करता। कई बार उसने पत्नी को समझाना की कोशिश की ज़िन्दगी घर-गहरस्ती और बच्चों के परे भी है, और वो हसीं है।
देवेन चाहता था की उसकी पत्नी इन् सब बातों से ऊपर उठ कर प्रेम और प्रीत की दुनिया को देखे। दुनिया-दारी में जितना उलझो ये और उलझाती जाती है, और जान-बुझ कर दल-दल में क्यों फसना, देवेन ज़िन्दगी को सरल और simple रखना चाहता था।
पर कौन समझता है यहाँ किसीको। हर कोई समझता है जैसे मेरा मन चाहे बस वही ज़िन्दगी को जीने का तरीका है।
एक रोज़ दिवाली पर देवेन घर आया, बहुत से gifts, सबके लिए ले कर आया। खुशियों की कीमत कहाँ होती है, खुशियां ज़र्रे-ज़र्रे में बसी हैं, पर उनकी कीमत किसीको कहाँ पता होती हैं, और खुशियां न बिक सकती है और न खरीदी जा सकती हैं.
घर पहुंचते ही पत्नी को रूठा हुआ पाया . पूछने पर पता लगा की वो बहुत तंग आ गयी गयी है, उसकी शिकायत थी की उसकी बच्चे की चाहत को देवेन ignore कर रहा था। देवेन ने उसे समझाने की कोशिश की, की बच्चा बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होता है, और अभी वो इस ज़िम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं है। पर वो ज़िद्द पर अड़ी थी और देवेन की कोई बात मानने को तैयार नहीं थी। देवेन घर से उठ कर चला गया और फिर देर रात ही वापस आया।
घर आ कर देवेन कपडे बदल सीधा सोने चला गया। कुछ ही देर में रिद्धि गुस्से में पैर पटकते वहां आ पहुंची, "कहाँ गए थे, कल दिवाली है, मुझे बाज़ार ही ले जाते"
"बस यु ही ज़रा दोस्तों से मिलने चला गया था, अभी नींद आ रही है, सुबह बात करें" देवेन बात को यही ख़तम कर देना चाहता था।
पर रिद्धि आज कुछ दुसरे ही mood में थी,"नहीं, सुबह नहीं, अभी बात करनी है, कब तक तुम सब बातों से भागते रहोगे, मैं यहाँ तुम वहां, और बच्चे के नाम पर भी कुछ नहीं सुनना चाहते, ऐसा कब तक चलेगा, मैं यहाँ अकेले कैसे दिन बिताती हूँ, मुझे बच्चा चाहिए बस"।
"अच्छा, अभी बात करते हैं, मैने, तुम्हें पहले भी कहा हैं मेरे साथ चलो, तुम और मैं और हसीं ज़िन्दगी, छोड़ो सब बातों को, क्यों ज़िन्दगी को उलझाना चाहती हो, चलो तो सही, बच्चे के बार में भी discuss कर लेंगें, बोलो कब चलना हैं" ? देवेन ने रिद्धि को प्यार से अपने पास बिठाते कहा।
"ओह ! तुम्हारे साथ चलूँ, और मैं भी तुम्हारी तरहं खानाबदोश बन जाऊ, और ये घर भईया-भाभी खा जाएँ, और मेरे भाई-बहन सबको छोड़ दूँ, तुम्हारा तो कुछ ठिकाना हैं नहीं और मुझे भी अपनी तरहं बेघर बनाना चाहते हो" रिद्धि ने एक सांस में बहुत कुछ बोल दिया।
"रिद्धि, घर का क्या हैं, आज हैं कल नहीं होगा, और क्या पता कल इससे भी बड़ा हो जाये, यहाँ बस एक बात matter करती हैं और वो हम-तुम है और हमारी ज़िन्दगी हैं" देवेन ने प्यार से बात समझानी चाही।
"ठीक हैं इस घर में अपना हिस्सा लेलो और चलते है बस" रिद्धि ने अपनी बात बता दी।
"नहीं रिद्धि, भइया जैसा करेंगें, और कहेंगें वही मान लेंगें, ज़िद्द छोड़ो और मेरे साथ चल दो" देवेन वापस सोने चला गया।
सुबह शोर ने देवेन की नींद खोल दी, रिद्धि की ज़ोर-ज़ोर से बार करने की आवाज़ आ रही थी।
रिद्धि ज़ोर-ज़ोर से पैर पटकते हुए कमरे में दाखिल हुई, " बोल दिया मैंने भइया-भाभी से, के हमें हमारा हिस्सा देदें और हम यहाँ से चले जायेंगें"।
"रिद्धि, ये क्या किया तुमने, एक बार मुझसे पूछ तो लेती" देवेन बहुत ख़ीज गया था।
देवेन ने अपना सामान बाँधा और कपडे बदल कर जाने लगा।
"कहाँ जा रहे हो, जो कुछ मैंने किया वो हमारे लिए ही किया" रिद्धि देवेन के सामने, उसका रास्ता रोक खड़ी हो गयी, "तुम बोल नहीं पाते सो मैंने तुम्हारा काम आसान कर दिया, अब चलो छोड़ो, चलो दिवाली मनाते है और जल्द ही अपना हिस्सा ले कर निकल जाते हैं, you can thank me later" रिद्धि ने सब एक सांस में बिल दिया।
देवेन को बहुत गुस्सा आ रहा था, पर भाई की आवाज़ कानो में पड़ते ही देवेन गुस्से को पी गया.
"देवेन, हम लोग बहार नाश्ता करने जा रहे है, तुम दोनों भी तैयार हो जओ" भइया ने धीमी आवाज़ में कहा।
इससे पहले की देवेन कुछ कहता, रिद्धि बोल पड़ी, "अब हम कहीं नहीं जायेगें, अब हम बस हिस्सा लेगें और यहाँ से चले जायेंगें"
"रिद्धि ! चुप हो जाओ और जाओ यहाँ से" देवेन ने ज़ोर से गुस्से में कहा.
"नहीं देवेन मैं कहीं नहीं जाउगीं अब, आज ही फैसला हो जाये बस" रिद्धि देवेन के सामने जा खड़ी हुई।
देवेन गुस्से में आग बबूला हो रहा था, रिद्धि उसके सामने खड़ी थी और धीमी आवाज़ में बोली "तुम बोलते नहीं और मुझे बोलने नहीं देते, हम अपना हिस्सा लेगें और चले जायेंगें, आज बस तुम मेरा साथ देदो और बस देखो फिर, और तुम्हारा कहना भी मान लुंगी, यहाँ से जाने का"
देवेन अपने गुस्से पर काबू न रख पाया और रिद्धि को थपड मार दिया। रिद्धि पलंग पर बैठ कर अपना मुँह छुपा रोने लगी.
देवेन अपना सामान उठा वहां से चल गया। 'भाग जाना किसी बात का हल नहीं होता, पर शायद यहाँ से जाने पर इस बात को यहाँ विराम मिल जाये' देवेन बात को ख़तम करने के लिए वहां से चला गया। पर शाम को घर वापस आ गया, दिवाली वाले दिन वो तमाशा नहीं बनाना चाहता था।
रिद्धि घर में कहीं नज़र नहीं आ रही थी। देवेन को थोड़ी राहत सी हुई, शायद ज़िन्दगी एक और मौका दे रही थी। चारो ओर दीयों की रौशनी से देवेन को बहुत ही अच्छा लग रहा था.
'न ज़िम्मेदारिया और न ज़िम्मेदारियों का बोझ, कब तक दूसरों की ज़िन्दगी जीनी, अब बस अपनी ज़िन्दगी, अपनी मर्ज़ी से ही जीनी हैं बस' देवेन चारों ओर रौशनी देख मन ही मन प्रण ले रहा था।
to be continued ..........
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