रविवार, 4 मार्च 2012

मोहन मेरे .....


है क्या सच तु ही मुझको बतलादे अब,
इस ओर या उस ओर ,
कौन सी ओर है मेरी तूही मुझको रास्ता दिखला दे अब,
भटक-भटक तन मन छलनी हो गया,
अब तो मुझ को राह दिखा दे,
तन, मन, काया और रूह से भी हो गया हु शिथल,
अब तो मुझ को किनारे लगा दे ,
मोहन मेरे कुछ नहीं तो आज मुझको ,
मुझे से ही चुरा ले.
भटक-भटक जन्मो बीते,
अब तो पार लगा दे,
मोहन मेरे आज गर तू आ जाये,
तो मैं, मुझको ही तुझ पर वार कर,
मिलने और जुदा होने की रस्म ही मिटा दू.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें