सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

बस इतना सा ही जहां होता


एक नज़र का ख़्वाब होता,
कोई मीठा सा हिसाब होता,
तेरी बाहों में सिमट जाती मैं,
या फिर कोई नया ख्वाब होता।

रास्ते चुपचाप चलते,
हम कहीं दूर तक चलते,
ना कोई मंज़िल की फ़िक्र होती,
ना कोई डर साथ पलते।

बादलों से गुफ़्तगू करते,
चाँद की चुप्पी को पढ़ते,
सांसों की धड़कनें सुनते,
ख़ामोशी में लफ़्ज़ बुनते।

पर ये दुनिया रोक देती है,
हर कदम पे टोक देती है,
कभी रिवाज़ों की ज़ंजीरें,
कभी रस्मों की दीवारें खींच देती हैं।

फिर भी सोचती हूं हर पल,
अगर ये सब ना होता,
एक मैं और एक तुम,
बस इतना सा ही जहां होता

 : इतना सा जहां :
 

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