"मैडम जी, लिफ्ट नहीं चल रही, सीढ़ी से ही जाना होगा"
"आज भी नहीं चल रही, पैसे तो समय से पहले चाहिए, पर काम कोई नहीं करना", 'आज भी सीढ़ियों से जाना होगा, शुक्र है आज शुक्रवार है, थोड़ा आराम कर लुंगी आज, पर नहीं आराम नहीं, जाना है मुझे आज, निमिष के साथ डिनर है आज, कितने दिन लगे उसे डिनर के लिए मनाने में, अब इस मोके को कैसे जाने दूँ' पांचवी मंज़िल तक सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते रीमा के ख्यालों के घोड़े दौड़ते ही जा रहे थे।
पांचवी मंज़िल पर पहुंच कर रीमा ने गुस्से में तीन-चार बार घंटी बजा दी। माँ के दरवाज़ा खोलते ही रीमा माँ पर बरस पड़ी,"कितनी देर लगा दी, माँ, चाय बना दो जल्दी, मैं कपडे बदल कर आती हूँ, खाना नहीं खाऊगीं, आज मेरा ओफ़्फ़िशिअल डिनर है, मुझे जाना होगा, शायद बहुत देर हो जाये, तुम खाना खा कर सो जाना, मैं अपनी चाबी ले जाऊगी"।
माँ ने चाय बना कर स्टील के गिलास में ला कर रख दी। रीमा की निगाहें मोबाइल मे ही गड़ी थी, माँ की ओर देखा भी नहीं, चाय का कप उठाने को हाथ बढ़ाया, स्टील के गिलास को हाथ लगाते ही, रीमा ने गिलास वापस पटक दिया, "स्टील का गिलास, माँ, स्टील का गिलास क्यों, स्टील के गिलास मे कौन चाय पीता है, और मेरा वाला कप कहाँ है, माँ जाओ मेरे कप मे चाय लाओ, क्या हो गया है, पांच मंज़िल सीडियां चढ़ो, और फिर ये सब, आज दिन ही कुछ अजीब सा जा रहा है, माँ प्लीज चाय ला दो, बहुत थकान हो रही है, और अभी ओफ़्फ़िशिअल डिनर पर भी जाना है, जला हुआ हाथ ले कर मैं डिनर पर नहीं जाना चाहती"।
रीमा चाय पी कर, तैयार होने चली गयी। ' लाल ड्रेस पहन लूँ, नहीं जाएदा हो जायेगा !, हम्म्म ........... काली नहीं, हरी नहीं, पीली भी नहीं, कौन से कपड़े पह्नु, ओफ्हो ! ये क्या हो रहा है मुझे, ऐसे तो रात यही निकल जाएगी, निमिष को मानाने मे महीनो लगे, और अब क्या पह्नु ये तय मैं, मैं मिंटो में कैसे कर लूँ' ? ।
'निमिष, औ, निमिष, कितना तंग किया तुमने मुझे। कितना तड़पी, मैं तुम्हारे लिए, निमिष और रीमा, सोच कर ही कितना प्यारा लगता है, तो जब हम साथ होंगें तो देखना, लोगों के दिल जलेगें, क्या, तुमको भी ऐसा लगता है ! लगता तो होगा, तभी तो तुम आज मुझसे मिलने आ रहे हो। औ...हो ..., सर में दर्द हो जायेगा, सोच-सोच कर, एक बार बस, एक बार तुम मिल जाओ, बस फिर हम दोनों होंगें, कोई और नहीं, कोई भी नहीं, मैं और तुम मिल कर एक नया जहाँ बनाएगें, और वो नीमा, सबक मिल जायेगा उसे। निमिष, मैं और तुम, देखना मैं तुमको इतना प्यार दूंगीं की तुमको कोई याद नहीं आएगा,अपने अघोष से कभी भी छूटने दूंगीं, अपनी ज़ुल्फ़ों में ऐसा उलझा लुंगी के तुम मेरे सिवा किसी और को देख ही नहीं पाओगे, उस नीमा को तुम्हारी ज़िन्दगी से निकाल बाहर कर दूंगीं मैं'।
'पर... मैं..., निमिष के साथ बात कैसे शुरू करुँगी, कैसे उसे कहूं की वो नीमा को छोड़ दे ओर मेरा हो जाये !, बड़ी दुविधा है, काश सिया होती, मेरी प्यारी सिया, कितना प्यारा साथ था हमारा, हर बात का समाधान होता था मेरी प्यारी सिया के पास, बहुत मिस करती हूँ उसे, अभी होती तो यहाँ मेरे सामने बैठ कर मुझको तैयार होने में मदद कर देती, पर वो भी बेवफा निकली !, प्रदीप के पीछे मुझे छोड़ दिया, ऐसा तो कुछ था भी नहीं उस प्रदीप में'।
'खैर, माँ से पूछती हूँ'।
"माँ, माँ, कहाँ हो", डाइनिंग टेबल को सजा देख रीमा को हैरानी सी हुई, "माँ..., कोई डिनर पर आ रहा है क्या " ?
"माँ, डिनर पर कौन आ रहा है" ?
"नीमा और निमिष, डिनर पर नीमा और निमिष आ रहे हैं, मैंने बुलाया है, मुझे नहीं पता था की तुम डिनर पर बाहर जा रही हो" !
"नीमा और निमिष, निमिष..... कैसे आ सकता है यहाँ, माँ तुमको किसने कहा की वो यहाँ आ रहा है" रीमा हैरान हो माँ की और देख रही थी।
इतने में दरवाज़े की घंटी बजी, रीमा ने दरवाज़ा खोला, "औ, तुम, माँ नीमा है, निमिष नहीं आया" ?
"निमिष, ऑफिस से सीधा यही आयेंगें" नीमा ने बिना रीमा ओर देखे बोला।
"मैं अकेली आयी हूँ"
'हाँ, अकेली ही रह जाओगी, क्यूंकि, निमिष अब तुम्हारे नहीं, मेरे साथ होगा, और तुम हमेशा के लिए अकेली रह जाओगी' रीमा मन ही मन सोच कर मुस्कुराने लगी।
"तुम्हारा, दिल तोड़ते हुआ बुरा लग रहा है, रीमा जी, पर निमिष ऑफिस से सीधा यहाँ नहीं आयेंगें, और अब तुम सपने देखना बंद कर दो, हकीकत ये है की निमिष और तुम अब .........."
माँ ने रीमा को आगे कुछ नहीं बोलने दिया, माँ के थपड ने रीमा को हिला दिया। इससे पहले रीमा कुछ कहती माँ ने रीमा को एक और थपड लगा दिया।
"माँ, नहीं, नहीं माँ....." नीमा ने माँ को संभाला।
रीमा ने खुद को संभाला और सोफे पर जा बैठी, "मुझे क्यों मार रही हो, मेरा क्या कसूर, अगर निमिष मेरे साथ आना चाहता है तो मैं क्या करूँ" !
"रीमा, बस करो, बस करो अब रीमा, तुम्हारे पापा मुझे कहते रह गए की, 'अपनी बेटी को संभाल लो', पर मुझे लगा तुम संभल जाओगी, पर तुमने हर हद पार कर दी, सिया और प्रदीप को अलग न कर सकी, तो अपनी बहन का घर ही उजाड़ने लगी, कैसे सोच लेती हो ये सब ?, इतना ज़हर कहाँ से आया है तुम्हारे अंदर" माँ गुस्से से भरी हुई थी।
"सिया जब प्रदीप के साथ, तुम्हारे पापा के गुज़र जाने के बाद मुझसे मिलने आई, तो प्रदीप ने मुझे बताया की तुमने कैसे उसके साथ बद-सलूकी की, बेचारे की नौकरी भी खा गयी तुम, वो तो सिया से प्यार था उसे, इस लिए उसने तुम्हारे किये पर पर्दा डाल दिया, पर तुम उसी को कोसती रही, मैंने सोचा तुम बदल जाओगी, पर तुम तो अपने बहनोई पर ही डोरे डालने लगी, नीमा के बारे में भी नहीं सोचा, तुम्हारी बहन है, उसी का घर उजाड़ने का कैसे सोच लिया तुमने"।
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