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भाग - 2
- 7 -
"माँ मुझे आप से बात करनी है" दीपेंदर ने कांता के सामने वाली कुर्सी पर बैठते बोला .
"अभी नहीं, अभी मैं पाठ कर रही हूँ, बाद में बात करुँगी, प्रीत आ जाओ पाठ करे" कांता ने प्रीत को आवाज़ देते बोला .
"नहीं माँ मुझे बात करनी, क्या हो गया है, क्यों करवाई मेरी शादी आपने जब मैं अपनी बीवी से बात नहीं कर सकता, न वो मेरे पास बैठ सकती है, क्या चाहती हो आप" दीपेंदर ने प्रीत के आने से पहले ही दरवाज़ा बंध कर दिया.
"छोड़ो मुझे, दरवाज़ा खोलो, बाद में बात करेंगें कहा न" कांता ने गुस्से से कहा .
"नहीं माँ अभी बात करनी होगी" दीपेंदर ने ज़िद करते कहा.
"जब शादी के दुसरे दिन मुझे बिना बताये चले गए, क्या तुमने जाने से पहले पुछा था, तो मैं क्यूँ बताऊ मैं जो कर रही वो क्यों कर रही हूँ, चले जाओ हमें पाठ करने दो, जाओ यहाँ से" कांता ने दरवाज़ा खोल प्रीत को अंदर बुलाया.
प्रीत, दीपेंदर की और ही देख रही थी, "तुमको कितनी बार कहा चलो मेरे साथ, पर तुम भी माँ की तरफ-दारी करती रहती हो"
प्रीत के माँ-बाप नहीं थे, एक भाई ही था, वो भी दूर शहर चला गया था, प्रीत अपने भाई के दूर चले जाने पर परेशान थी और अपने को अनाथ सा महसूस करती थी, कांता से उसे माँ का प्यार मिला था, कितनी बार उसने कांता से कहा की वो उसे दीपेंदर के पास कुछ रहने के लिए जाने दे, पर कांता हर बार यही कह कर ताल देती की 'मुझे अकेला छोड़ चली जाएगी क्या', कांता के मोह ने उसे बांध रखा था .
- 8 -
अगली सुबह कांता ने प्रीत को जगाते बोला,"प्रीत उठो जाओ चाय बना लाओ".
प्रीत हाथ-मुँह धो कर रसोई में गयी तो उलटे पैर लौट आयी, उसके सर पर दुपटा भी नहीं था और आँखें पानी से भरी हुई थी.
"क्या हुआ, हाथ जल गया क्या, कितनी दफा बोला की ध्यान से काम करो" कांता ने प्रीत के आसूं पोछते बोला.
"माता जी, वो घर छोड़ कर चलें गए है" प्रीत ने चिठ्ठी कांता की ओर बढ़ाते बोला.
"कौन घर छोड़ कर चला गया है" कांता ने चिठ्ठी लेते पुछा,"अरे, कुछ नहीं हुआ है, शाम को लौट आएगा.
"कोई नहीं आएगा वापस, मान लो माँ, वो अब नहीं आयेंगें, उन्होंने मुझे कहा था की वो अगर चले गए तो कभी नहीं आयेंगें, आप मान लो, आप की बात मान ली उन्होंने, आपने कहा चले जाओ, और वो अब चले गए, मैंने कहा था की मुझे जाने दो, कुछ दिन तो जाने देती, पर नहीं, अब देखो क्या हो गया, अब न वो आपका बेटा रहा और ना ही वो नहीं मेरा पति रहा, वो बंधन से आज़ाद हो गया, अब मैं भी चली जाऊंगीं बस, अब आप कोई चिंता मत करो, अब मैं बस आपके पास ही रहूगीं, अब आपको बार-बार बीमार नहीं होना पड़ेगा,अब मेरा सारा धयान आपके लिए है" प्रीत बोल कर कांता के पैर दबाने लग गयी.
- 9 -
दीपेंदर को गए एक महीना बीत गया, प्रीत बेसुध हो यहाँ-वहां घूमती रहती, कांता अपने बेटे का पता लगाने में लगी रहती.
"प्रीत चलो तैयार हो जाओ, आज हम दुसरे शहर जायेंगें वहां बहुत महान संतो की टोली आयी हुई है, उनका प्रवचन है" कांता ने अपना सामान बांधते कहा.
"नहीं मुझे नहीं जाना, और अगर आपने ज़बरदस्ती की तो मैं भी कहीं चली जाउंगी" प्रीत ने ऊंची आवाज़ में बोला, और वो वहां से चली गयी .
कांता अकेले ही चली गयी, उसके वहां पहुंचने से पहले ही प्रवचन शुरू हो गया था.
प्रवंचन ख़तम होने एक-एक कर सब संत लोग जाने लगे तो कांता ने देखा की संतों में एक संत उसका बेटा था, वो दीपेंदर था.
दीपेंदर माँ को देख वहां से उठ कर चल दिया, कांता उसके पीछे-पीछे चल दी, "रुको बेटा, मुझे माफ़ नहीं करोगो".
दीपेंदर कुछ बोले बिना ही समाधि में बैठ गया .
"संत जी मेरा बेटा कहीं चला गया है मुझसे रूठ कर और मेरी बहु भी पागल सी हो गयी, न जाने, ना जाने मेरे घर को किस की नज़र लग गयी है, आप मुझे कोई रास्ता दिखाएं" कांता ने हाथ जोड़े आँखों में आसूं लिए कहा.
दीपेंदर कुछ न बोला, उसके पास खड़े एक संत बोले,"माता जी, हम तभी दुखी हैं क्यूंकि हम अपना खोट नहीं देखते, बस दूसरों के खोट निकालते रहते हैं, इसीलिए हम दुखी हैं, जाओ माता जी घर जाओ क्यूंकि कर्मो का फल सबको भुगतना ही होता है".
कांता, दीपेंदर के पास बैठ गयी,"संत जी क्या मेरी एक गलती मेरी सब अछाईयों को भुला देती है".
दीपेंदर ऑंखें मूंदें चुप-चाप बैठा था, दुसरे संत ने कांता को घर जाने को कहा,"जाओ माता जी घर जाओ, ये नहीं बोलेंगें, क्यूंकि इन्होने पांच वर्ष का मौन धारण किया है, जाओ माता जी आप जाओ, सबको अपने कर्मो का फल भुगतना ही होगा"
कांता वहीँ बैठी रही,"नहीं संत जी मैं अपने बेटे के बिना नहीं जाऊगीं" और वो वहीँ दीपेंदर के पास बैठ गयी .
- 10 -
सुबह कांता की आंख खुली तो देखा वहां कोई नहीं था, सब जा चुके थे, कांता अपने साथ निराशा ले घर वापस आ गयी.
घर आ प्रीत को खोजने लगी पर प्रीत कहीं नज़र न आयीं, कांता प्रीत को पूरे गांव में खोजती रही पर प्रीत नहीं मिली, एक-एक कुआँ और एक-एक तलाब भी देख लिया पर प्रीत नहीं मिली.
घर वापस आयीं तो प्रीत आंगन में बैठी थी, "अरे, प्रीत कहाँ चली गयी थी मैं तुम्हें सारे गांव में खोज रही थी"?
प्रीत कुछ न बोली और सो बस कांता की गोद में सर रख कर सो गयी.
प्रीत की तबियत खराब देख कांता ने डॉक्टर को बुलवा लिया, डॉक्टर ने प्रीत की जाँच पड़ताल के बाद कांता को बाहर बुला कर बोला, "कांता जी आपकी बहु पागल सी हो गयी है, आपको इसका धयान रखना होगा क्यूंकि वो पेट से है", कांता के पैरों तले ज़मीन ही खिसक गयी,'नहीं ये नहीं हो सकता, ये कैसे हो सकता है, दीपेंदर को गए तो अरसा हो गया'.
कांता गुस्से से भरी प्रीत के पास पहुँच गयी, उसने प्रीत को घर से बाहर निकाल देने का फैसला कर लिया, पर प्रीत को देखते ही उसे रोना आ गया, प्रीत दीपेंदर की तस्वीर को बाँहों में लिए उससे बातें कर हंस रही थी.
कांता ने दीपेंदर का पता लगाया और वो प्रीत को ले दीपेंदर के पास पहुँच गयी.
"संत जी, मुझे पता है आपने मौन धारण किया हुआ है, लेकिन एक बार इस लड़की को देखिये, इसका क्या कसूर है, और अब मैं इसका क्या करूँ, गांव वाले इसे जीने नहीं देगें, ना जाने कहा से ये पाप कर बैठी है, एक बार देखिये और कुछ तो बताईये".
दीपेंदर ने आँखें खोल प्रीत को देखा तो वो उसका बड़ा पेट देख मुस्कुरा दिया, एक कागज़ पर कुछ लिख कर कांता को दे वहां से चला गया .
कांता, कागज़ पर लिखा पढ़ अपने आसूं पोंछ अपने घर की और चल दी.
कागज़ पर लिखा था,'ये बच्चा, प्रीत के और आपके कर्मो का फल है, आपने मुझे उसके साथ रहने नहीं दिया और प्रीत ने कभी मेरे साथ चलने की बात नहीं मानी, बस हो गया जो होना था, अपने कर्मो का फल सबको भुगतना होता है'.
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